Saturday, 9 December 2017

माँगा ज़रा सा नेह



अमित राजपूत
माँगा ज़रा सा नेह, हाय ये क्या कर गये ।
जागे थे जो अरमान यार, सब वे मर गये ।।

संसार झूठा, प्यार झूठा, अपने भी झूठे हो गए
कुमकुमी रिश्ते अनूठे, वो भी नूठे हो गए ।
कल तलक जो साँस थी, अपनी पराई हो गयी
खामखाँ रुख़सत वो होना, इक बुराई हो गयी
रूह तो सँग ले गए, अब अस्थि पंजर रह गये ।। जागे..

रवि-ओज में सँग रोज़ मुझको, वो नहाना याद है
हर मसखरी में नित सनम वो, खिलखिलाना याद है ।
बन गयी वो आग, जिससे आँव रिश्तों पर जमे
जल रहा है दिल मेरा, तन फूँकने की फरियाद है
चल रही साँसें मगर, हम जीते जी ही मर गये ।। जागे..

नन्हीं सी उस बगिया में, जहाँ फूल दिये थे लाल
तुमनें जो पौधा था रोपा, स्वयं दिया है टाल ।
रंग-बिरंगा चंद दिनों का, जीवन मालामाल
नज़र लगी क्या बुरी बला से, उजड़ चला संजाल
नींद सँग सपना भी टूटा, हाथ मलते रह गये ।। जागे..

मैंने रह-रह सुनना चाहा, लफ़्ज़ तेरे दो-चार
किया पराया फिर भी मुझको, झपट दिया दुत्कार ।
मस्त मचलती व्यस्त ही रही, बातें हुयीं हज़ार
फिर मैं भोर तड़पते देखा, कोई ढूढ़ रहा था प्यार
सुबह चमकते टिमटिम तारे, गुमसुम हो गये ।। जागे..

निष्ठुरता की मूर्ति बनीं तुम, शैल सभी पथराये
भंग मदार ओ चिलम धतूरे, ये सारे भरमाये
देख अनोखी चाल तुम्हारी, हम इतने बौराये
ख़ुद का रहा न होश हाय, हम किस पथ चलकर आये
अहो भाग्य मम वाह ! न जाने, दर तेरे कैसे आ गये ।। जागे..

5 comments:

  1. Nice ... And it's Universal Truth

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    1. वाकई महेन्द्र जी।
      शुक्रिया प्रतिक्रिया के लिए...

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  2. Kya khoob kaha! Bahut badhiya.

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद बिहारी जी।

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  3. Nice poetry and universal truth..������

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