∙ अमित राजपूत
दिल्ली से मुझे कभी इश्क़ न हो पाया । ये हमेशा से मुझे बेवफ़ा मोहब्बत के सिवा कुछ न लगी । सच्चाई तो ये है कि दिल्ली ने मुझसे हमेशा वेश्या की तरह बर्ताव किया । यही कारण है कि मैं भी अब उसे वेश्या स्वीकार कर चुका हूँ । दिल्ली को भोगकर निकल जाने की फितरत घर कर गयी है मुझमें । इसलिए अब मैं जल्दी ही इससे ऊबकर निकल जाने की फिराक में लगा रहता हूँ । इस बार कुछ ज़्यादा ही ऊबकर मन खिन्न हो गया । मैं झटपट निकलना चाहा क्योंकि इस वक़्त मुझे पैसों की भी ज़्यादा किल्लत हो गयी । इस तनाव भरे माहौल में मैंने तनाव को ही तनाव देने की ठानी और ग़रीबी में उल्टे कुछ पैसे उधार माँगकर घूमने निकल पड़ा । इसके लिए मैंने ब्रितानी हुकूमत की ग़ुलामी से मुक्त रियासत रामपुर का रुख़ किया और फिर वहाँ से नैनीताल । उधारी इतनी ज़्यादा भी न मिल पायी थी इसलिए आगे के खर्चे अधिक होने के कारण रामपुर कोर्ट में तैनात मेरे वाइट कॉलर दोस्त उमेश पटेल ने मेरे खर्चों को वहन कर डाला । ‘जहाँ चाह-वहाँ राह’ की नजीर मेरे लिए सच हो गयी थी ।
ख़ैर, इस वक़्त छह जनवरी की धुंधली सर्द भरी
शाम ढले मैं दिल्ली से निकला रामपुर बस स्टॉप पर खड़ा था । यहाँ से मैंने अपने
दोस्त उमेश को फोन लगाया और उसके कमरे आने का निर्देशन माँगा। उसने मुझे कचेहरी के
दूसरे नम्बर वाले गेट के सामने DIG चाय वाले के यहाँ तक
रिक्शे से आने को कहा ।
‘DIG चाय वाला’ ! हू-ब-हू ऐसे ही, जैसे आपकी भौंहें तन गयी हैं इस नाम को सुनकर ठीक वैसे ही मैंने भी अपनी भौंहों पर बल दे डाला था उस वक़्त । ये नाम और इसमें छिपे दो बिम्ब DIG और चाय वाला रह-रहकर मेरे दिमाग़ में कुँधने लगे । बस-अड्डे से कचेहरी मैं एक गहरी सोच में ही आ धमका । रिक्शे वाले के ‘साहेब DIG चाय खिन लिआये गइन..’ कहते ही मेरी सोच शिथिल हुयी और मैंने अपनी नज़रें ऊपर कीं तो देखा कँसा हुआ मोटा-काला कोट-पैण्ट और हाथों में ऊनी दस्ताने पहने स्मार्ट सा लड़का मेरे सामने हाज़िर था जिसने झट से मेरे बैग का कंधा बदल दिया था । घण्टों से मेरे कंधे से चिपका बैग अब उमेश के कंधे पर और भी जच रहा था ।
हम उमेश के कमरे पर पसरे चाय की चुस्कियों के
मौज ले रहे थे । उमेश के सहकर्मी दो-चार और दोस्तों का जमावड़ा भी उस कमरे पर था ।
मैंने सबका ध्यान अपनी ओर खींचकर जानना चाहा कि DIG
चाय वाले को DIG चाय वाला ही क्यों कहते हैं, आख़िर इस नाम
के पीछे की कहानी क्या है ? उमेश सहित उसके सभी दोस्त एक ही
नाके से निकल गये । वो नाका हँसी भरे आश्चर्यबोध का था जिसके आगे नकार का रास्ता
था ।
अगली रात नौ बजे मैं उमेश के साथ DIG चाय वाले की दुकान पर उसकी चाय का गिलास थामे बिल्कुल DIG चाय वाले के छह फिटे बदन के सामने ही खड़ा था । आँखों में सुर्ख़ रंग और
चेहरे पर आज भी शोखियाँ बटोरे 52 वर्षीय DIG चाय वाले का असल
नाम ओम प्रकाश सैनी है । ओम प्रकाश की कचेहरी में अच्छी जान-पहचान है और कचेहरी
में भी वकील, जज, पेशकार और बाबुओं सहित सभी लोग ओम प्रकाश को पसन्द करते हैं । 26
जनवरी, 15 अगस्त और 02 अक्टूबर जैसे विशेष अवसरों पर इनकी ही चाय की चुस्कियाँ
जजों के होठों का सबब बनती हैं। स्वभाव से नरम और फ़ैसलों से सख़्त ओम प्रकाश
मददगार इन्सान के तौर पर जाने-जाते हैं । रामपुर कोर्ट में तैनात कई बाबुओं ने
अपनी आपबीती मुझे सुनाई और हर किसी के अनुभव संसार में मैंने ओम प्रकाश और उनके
मददगार स्वभाव को सदृश पाया ।
अपनी दुकान में मौजूद DIG चाय वाले के बेटे राजकुमार सैनी |
8वीं तक पढ़े ओम प्रकाश से जब मैं बातचीत करने
लगा तो आधे घण्टे से ऊपर गुजरे वो मुझे कुछ भी बताने से इन्कार करते रहे । फिर
मेरी ये राज़ जानने की तलब और बढ़ी । मेरी तलब भाँपकर ओम प्रकाश अब कुछ-कुछ
फुसफुसाने लग गये थे । उन्होंने मुझसे कहा कि उनसे ये बात हर कोई पूछता है लेकिन
वो टाल देते हैं । वो आगे कहते हैं कि “कभी-कभी एसपी
साहेब भी हमसे पूछते रहते हैं कि भई DIG तू तो बड़ा है हमसे,
भई हम तो एसपी रह गए और तुम तो DIG हो गए ! आख़िर बता तो राज़ क्या है ?”
मेरे और ओम प्रकाश के बीच घण्टों बात चली,
लेकिन स्वाभिमान के धनी DIG ने अब तक एक बक्कुर भी न
डाला । मेरे पुनश्च अनुरोध पर वो एक गहरी सोच में डूबते चले जाते और जब उससे बाहर
निकलकर आते तो बस यही कह पाते कि “पत्रकार साहेब छोड़िए । वो
पुरानी बातें हैं, उनको जानकर आप क्या करेंगे ? मैं वो सब
आपको बता नहीं सकता क्योंकि उससे किसी एक समुदाय की इज्जत पर आँच आ जाएगी ।” मैंने फिर भी अपनी जिज्ञासा से कोई समझौता नहीं किया, उल्टे वो और बलवती
होती गयी । मैंने अपना प्रयास जारी रखा और फिर अंततः उन्होंने मुझे लगभग 35-40 साल
पहले की एक लम्बी घटना बतायी जिसकी वजह से रामपुर कोर्ट में हफ़्तों हड़ताल रही थी
। दो पक्षों के वकील आमने-सामने थे और ओम प्रकाश को लगातार शाबाशियाँ मिल रही थीं
। उन्हीं शाबाशियों में एक शाबाशी थी सिविल लाइन्स कोतवाली (तब थाना) में तैनात
तत्कालीन कोई वर्मा जी (प्रथम नाम DIG की स्मृति में नहीं
है) नाम के दरोगा की । उन्होंने ही पहली बार ओम प्रकाश को DIG कहा था और तभी से ओम प्रकाश बदलकर ओम प्रकाश सैनी से डीआईजी हो गए । आज
लोग इन्हें ओम प्रकाश के नाम से न के बराबर जानते हैं बल्कि ये DIG के नाम से ही मशहूर हैं।
खुद्दार DIG चाय वाले उर्फ़ ओम प्रकाश सैनी अपनी दुकान पर |
DIG की बातें सुनकर हम दोनों ने ज़ोर के ठहाके लगाए । मैं सन्तुष्ट और स्वयं DIG इन ठहाकों के साथ अपने अतीत से निकलकर अभी तक के सफ़र को तय कर फिर से वापस मेरे सामने अविचल भाव में आ बैठे थे । जनवरी की रात के साढ़े दस हो चुके थे । DIG अपने कम्बल और रजाई को दुरुस्त करने लग गये.. चाय की झोपड़ी के बाहर झड़ती ओस की बूँदे भी दबे मन मुझे शुभ रात्रि बोल रही थीं... उमेश मेरे पास से जाकर वापस पन्द्रह मिनट से आकर मुझे डिनर के लिए बुलाने को खड़ा था । DIG उर्फ़ ओम प्रकाश सैनी को राम-राम कहकर मैं मन में पूर्णता समेटे उमेश के कमरे में परोसी अपनी डिनर की थाली के लिए तेज़ी से क़दम बढ़ाए चला जा रहा था...।
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