Monday, 26 March 2018

मुसलमाँ ज़हर हैं !



मत कहो के मुसलमाँ ज़हर हैं,
देश में साबूत तुर्कों का क़हर हैं ।

Friday, 23 March 2018

इश्क़ इबादत सुनता है !


∙ अमित राजपू

आओगी इक रोज़ नाज़नीन
ग़र इश्क़ इबादत सुनता है ।
रह रहकर तुम पछताओगी
ग़र इश्क़ इबादत सुनता है ।

उन दूर छिटकती राहों को
औ मद से भरी निगाहों को,
हर ज़ोर जुर्म से लिपटीं जो
आसक्त दूसरी बाहों को
झुठलाओगी...
खुलवाओगी...
ग़र इश्क़ इबादत सुनता है ।
रह रहकर तुम पछताओगी
ग़र इश्क़ इबादत सुनता है ।

है बड़ा अचम्भा मौन भला,
तुम प्यार का छोड़ो तौल भला,
जो तपती उड़ती रहती हो
बरसोगी झमा घनघोर भला
भीगोगी...
संग भिगाओगी...
ग़र इश्क़ इबादत सुनता है ।
रह रहकर तुम पछताओगी
ग़र इश्क़ इबादत सुनता है ।

Tuesday, 20 March 2018

ख़ुद से मिला हूँ...



च्युत हुआ सो मर गया मैं पर कहाँ मैं च्युत हुआ !
भटका जो राहें इब तलक लो हाल तुमको भी पता
था अकेला जब भी मैं तब ख़ुद को देखा, ख़ुद को पाया,
मौन होकर ढूँढ़ा रब को, ख़ुद में जाकर मिल गया !!

Sunday, 18 March 2018

कहाँ गयी वो धुन हो रामा !




∙ अमित राजपूत



जीवन जीने का राग ही फिज़ाओं की धुन बन जाता है। धुन अगर मद्धम पड़ी तो जानों जीवन जीने की कड़ियाँ दुबरा गयी हैं और यदि वो कहीं ग़ुम हो गयीं तो फिर तय है कि हम अपनी सभ्यता को छोड़कर कहीं दूर निकल जा चुके हैं जहाँ अब वो धुन न सुनाई पड़ती होंगी क्योंकि वैसा जीवन जीने का राग हम बिसरा चुके हैं।

बहुत से समाजशास्त्री यह बताते हैं कि सभ्यताएँ अपने ढंग से बदला करती हैं और ये सच भी है। मगर, हम तब भी यह तय करते ही हैं कि कौन सी सभ्यता भली थी और कौन सी सभ्यता बुरी। इसे मापने के लिए एक मात्र तत्व है- सभ्यताओं के राग, जो मसलन उनसे बनकर निकलने वाली धुनों से साफ़ पकड़ आते हैं। किसी सभ्यता की प्रचलित धुन को सुनकर व महसूस कर हम उसकी जीने की कला, ढंग और यहाँ तक की उस समाज की सुख-समृद्धि का आंकलन समेत कर लेते हैं। इस तरह हम अपनी रुचिवश तय कर सकते हैं कि क्या भला और क्या बुरा !

यद्यपि भारतीय लोकगीत परंपरा में ऋतुप्रधान गीत-संगीत की धुनों का महत्वपूर्ण स्थान है। अर्थात् भारत में हर ऋतु के साथ यहाँ के जन-जीवन में एक गायकी को जोड़ा गया है और उस गायकी के माध्यम से हम अपने मनोदशा या मनोभाव को व्यक्त करते हैं, जैसे बसन्त ऋतु के दूसरे हिस्से चैत की मनोदशा को व्यक्त करने के लिए लोकजीवन की अभिव्यक्ति गायकी की हिन्दुस्तानी या उप शास्त्रीय संगीत के पहनावें में बंधकर चैती गीत का रूप धारण कर लेती है। तथापि ये महत्ता अब मात्र मंचीय रह ही गयी है, लोक में इसकी बानगी तो अब ढूँढ़ने से भी नहीं मिलती है। समकालीन सभ्यताओं के संक्रमण काल में नज़र फेरकर देखें तो हमें इसके अनेक प्रमाण भी नज़र आते हैं। उदाहरण के लिए चैत का ही महीना चल रहा है और इसमें मधुमास के गीतों का नज़र न आना।

बीती अमावस्या के साथ ही आधा चैत समाप्त हुआ और अब नवरात्रि आयी और देखते ही देखते रामनवमी भी बीतकर चली जा रही है। इस पूरे चैत मास में कभी चैती की धुनें हमारे समाज में गूँजा करती रही हैं। होलिका दहन के साथ ही ये गीत उठान ले लेते थे क्योंकि भारतीय पंचांग में चैत मास का आगमन हो जाता है जिसकी हवाएँ हमारे शरीर को मीठे आलस्य से भर देती हैं, ग्रीष्म ऋतु के आगमन की तैयारी शुरू होने लगती है, खेतों में किसान को अपनी मेहनत का सार्थक फल रबी की सुनहरी बालियों के रूप में नज़र आने लगता है। अब ऐसे माहौल में कण्ठों से उल्लास का गीत स्वयं ही फूट पड़ता है और फिर पूरे महीने इस चैती गीत को लोग गाँव-गाँव समूह बनाकर बड़े चाव से साज-बाज के साथ गाया करते थे। चैती उत्तर प्रदेश के अवधी-भोजपुरी क्षेत्र और बिहार के मैथिली-भोजपुरी क्षेत्र के लोकसंगीत की सर्वाधिक लोकप्रिय शैली है। ये चैती गीतों के गढ़ हैं। हालांकि वैसे छत्तीसगढ़, झारखण्ड और कुमाँऊ में भी चैती खूब गायी जाती है।



वास्तव में जीवटता को महसूस करने के लिए चैत से बेहतर कोई महीना नहीं है। ये समृद्धि का महीना है, सुख का महीना है और आनंद के रस में डूब जाने का महीना है। महाकवि कालिदास ने अपने ग्रंथ ऋतुसंहार में लिखा है- चैत्र मास की बासंतिक सुषमा से परिपूर्ण लुभावनी शामें, छिटकी चाँदनी, कोयल की कूक, सुगन्धित पवन, मतवाले भँवरों का गुँजार और रात में फूलों के रसों का गढ़ापान ये श्रृंगार भाव को जगाये रखने वाले रसायन हैं। यही कारण है की चैत मास को मधुमास भी कहा जाता है। चैत की नवमी तिथि को भगवान राम का जन्म होनें के कारण इन गीतों के अंत में रामा की टेक लगाकर मोड़ देने का प्रचलन ही इन गीतों का प्रतिनिधि हो गया है। हालांकि अब बड़ा स्पष्ट है कि हो रामा !’ की धुन बीत रहे इस चैत महीने में हमें कहीं सुनाई नहीं पड़ी है। ऐसे में अनुभूतियों की इतनी गहरी और वैज्ञानिक संवेदना के गीतों की धुनों में भी हम न डूब पा रहे हों तो वाकई चिंता का विषय है। धुनों से परे जीवन-प्रवाह का ये क्रम हमें स्पष्ट संकेत देता है कि हमारे जीवन से राग-अनुराग का विलोप हो गया है।

एक वक़्त था जब गाँव की चौपालों पर महफ़िलें सजती थीं और रात भर चैता गाये जाते थे। अब तो गाँवों में चैता गाने वाले लोग भी नहीं रह गये हैं। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी का समन्वय और अनुदान अवरुद्ध हो गया है। इन धुनों से इतर जीवन जीने का दूसरा सबसे कारण यह है कि हम दिल से जीना छोड़ दिमाग से जीने लगे हैं। ऐसे में हम संवेदनाओं और उनके आनन्दानुभव से अछूते रोबोट हो चले हैं या फिर पशु।

चैती गीतों के घटते चलन की चिन्ता बहुत बड़ी है। इसके लिए जितना आवश्यक है कि इसके आयोजन मंचो पर हों, अकादमियों में इसकी चर्चा हो, सेमिनार हों और फ़िल्मों में इसके ज़्यादा से ज़्यादा प्रयोग हों उससे भी अति आवश्यक है कि ये चैती गीत गाँवों में एक साथ बैठकर चौपालों में लोगों द्वारा गाये जायें। इसके लिए गाँवों का परिवेश बेहतर करने की ज़रूरत है। इन सबसे के लिए जन प्रतिनिधियों को आगे आने की ज़रूरत है। प्रायः जनप्रतिनिधि ग्रामीण विकास के क्रम में ये भूल जाते हैं कि हमें इसकी भी प्राथमिकता तय करनी चाहिए कि विकास के आरोह क्रम में ग्रामीण अनुराग का अवरोह किसी भी कीमत पर न होने पाये। अन्यथा फिर गाँव का ढाँचा ही ढाँचा शेष रह जाएगा और उसकी आत्मा कहीं पिंजरे में क़ैद हो जाएगी।

उक्त क्रम में चैती गीतों को गति प्रदान करने वाले लोगों में अभिनेता गोविन्दा की माँ निर्मला देवी और पद्म विभूषण दिवंगत गिरिजा देवी के बाद ठुमरी सम्राज्ञी सिद्धेश्वरी देवी की पुत्री विदुषी सविता देवी, उप शास्त्रीय गायिका सुचरिता गुप्ता, पारंपरिक लोक गायिका मंगला सलोनी और अवधी लोक गायिका इन्द्रा श्रीवास्तव जैसी विदुषियों को चाहिए कि ये सब अपनी शिष्य परम्परा को इतना सुदृढ़ और विस्तृत बना लें कि इससे गाँव-गाँव चैती गाने वालों की अनेक टोलियों का निर्माण हो चले और फिर से बसन्त में जैसे ही गुलाल की धुलेरी उड़ा करे तो उससे चैती के मीठे बोल झरा करें, ताकि किसी मंच से परे कहीं सुदूर गाँव के किसी मन में ये ख़्याल न आये कि मधुमास भरी सतरंगी चैती की कहाँ गयी वो धुन हो रामा !

Monday, 12 March 2018

इश्क़ की आरजू...



जो मज़ा इश्क़ मिज़ाजी में है वो डूब जाने में कहाँ !

इक आहट की ही आरजू उसी में ही जहाँ !!


घर जले तो जले...



आदत है काटने की फसल, फलसफ़ा कुछ यूँ है
बीज नफ़रत का बो गया हो चाहे जितनी तले ।
चाहते हो भूल जाएँ वो जख़्म धार शोषण के सारे गिले
लाएँगे इंक़लाब साथी सुनो, किसी का घर जले तो जले ।

Sunday, 11 March 2018

जल रही सरकार...



लाये थे बटोरकर हुनर उँगलियों में इक बार,
करेंगे पकौड़ा चोखा कड़क-करारा तैयार !
नज़र हाय धाय धाय किसकी लग रही,
पडी़ ठंड भट्ठी, लग रहा जल रही सरकार !!


Saturday, 10 March 2018

क़तरा-क़तरा ज़िन्दगी...



जाना जिनकी फितरत है, उनपे रहम कौन करे !
कह दो जाने वालों से क़तरा-क़तरा जिया करें !!


बुरा रूप...



धरा जो रूप ये मैंने, तो मुजरिम बन गया पट्ठा !
वो शय भी है गुनहगर सुन, जो साया दूर कर बैठा !!

Thursday, 8 March 2018

बुझी ज्योति को कौन जलाये !


∙ अमित राजपूत

साल 1857 ई. का सैनिक विद्रोह भारत से ईस्ट इण्डिया कम्पनी के उपनिवेश के अंत के लिए जाना जाता है। इसे हम स्वतंत्रता संग्राम की पहली लड़ाई के तौर पर भी जानते हैं। वास्तव में इस संग्राम के बाद से ही भारतीय साम्राज्य के रूप में भारत के भीतर राष्ट्र की संकल्पना ने जन्म ले लिया था। इसलिए हम बेशक इस विद्रोह को भारत के आधुनिक इतिहास में राष्ट्रवाद का बीज बोने वाला विद्रोह कह सकते हैं। इस लड़ाई के प्रमुख योद्धाओं में दुगवा नरेश मंगल पाण्डेय, प्रमुख 7 भारतीय रियासतें, ग्वालियर धड़े, अवध के अपदस्थ राजा के बेटे बिरजिस क़द्र, स्वतंत्र राज्य झाँसी की अपदस्थ रानी लक्ष्मीबाई, अवध के कुछ ताल्लुकेदार और ग़ाज़ियों ने अपने-अपने बैरल और तलवारें माँज रखी थीं। इस क्रान्ति में अवध के इन ताल्लुकेदारों में दक्षिण-पूर्वी दो-आब के अंतर्वेद इलाक़े में बसे जनपद फ़तेहपुर में खागा के ताल्लुकेदार ठाकुर दरियाव सिंह का बीते 6 मार्च को शहादत का दिन था।

खागा में दरियाव सिंह की गढ़ी को अंग्रेज़ों द्वारा तोपों से उड़ाए जाने के बाद भी बचे उनके कुछ इमारती अवशेषों में से एक दीवार की चोटी ही उनके जनपद की सेनानी समिति का औपचारिक प्रतीक भी है। इन्होंने झाँसी की रानी की तरह ही अपने ताल्लुके सहित आसपास के अन्य इलाक़ों को भी पूरे 32 दिनों तक आंग्रेज़ों से मुक्त कराकर अमन क़ायम करने में सफलता हासिल की और अपनी प्रजा को देश की आज़ादी से पहले ही आज़ादी का स्वाद चखा दिया। इसके लिए उन्होंने अंग्रेज़ी सेना से जमकर लोहा लिया था और अंततः एक देशद्रोही घनश्याम अहीर की अंग्रेज़ों के समक्ष गवाही के चलते ठाकुर दरियाव सिंह और इनके पूरे परिवार के ऊपर बगावत, धारा-8 कानून-25 सन् 1857 के अनुसार-खागा के सरकारी खजाने को लूटने, अंग्रेजी शासन के विरुद्ध मोर्चा लगाने, सरकारी डाक बंगला को जलाने तथा मुजफ्फर हुसैन ख़ान के कथित इलाके पर अधिकार करने आदि के अभियोग लगाये गये। इस प्रकार, इनके कुल के दीपक बेटे सुजान सिंह समेत पूरे परिवार पर अभियोग लगाकर सबको 6 मार्च, 1858 ई. को प्राण दण्ड का आदेश हुआ और सबके सब हँसते हँसते फाँसी के फंदे पर झूलकर अमरत्व को प्राप्त कर गये। इसी के साथ दरियाव सिंह के कुल की ज्योति भी सदा के लिए बुझ गयी।

इस तरह से जनपद फ़तेहपुर के प्रवर प्रतिनिधि के रूप में दरियाव सिंह को जाना जाता है। वर्तमान में यहाँ के जन प्रतिनिधि, प्रशासनिक अधिकारी और बुद्धिजीवी आदि  सभी अपने सरोकारों में इसे भी तय करते हैं कि इस अमर योद्धा की अमर ज्योति को हम सदा प्रज्जवलित करते रहेंगे, क्योंकि एक बड़ी सुन्दर पंक्ति भी है कि शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मिटने वालों को बस यही बाक़ी निशां होगा। ऐसे में आप ज़रा बस ये सोचकर देखिए कि ऐसे शहीदों की शहादत वाले दिन यदि मेले ही न लगें तो क्या होगा हमारी संवेदना का ? लेकिन ऐसा ही हुआ है ठा. दरियाव सिंह के साथ। बीते 6 मार्च को उनके शहादत दिवस पर ज़िला मुख्यालय के ज्वालागंज में लगा उनका स्टैचू श्रृद्धायुक्त एक फूल-पत्ती के लिए तक तरसता रहा। ये आलम तब है जब देश की मौजूदा सरकार राष्ट्रवाद का दंभ भरती है हालांकि उसके बरक्स आधुनिक इतिहास में राष्ट्रवाद का बीज बोने वाले विद्रोह के योद्धाओं से उसके कोई सरोकार नहीं दिख रहे हैं।

आपको ये जानकर आश्चर्य होगा कि फ़तेहपुर इस कथित राष्ट्रवादी सरकार की कट्टर राष्ट्रवादी छविग्राही सांसद और केन्द्रीय मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति का क्षेत्र है। इतना ही नहीं यहाँ के सभी 6 विधायक भी इन्हीं की पार्टी के हैं और उनमें से 2 राज्य सरकार में भी मंत्री हैं। इन सब में से कोई भी जनप्रतिनिधि दरियाव सिंह को नमन करने नहीं गया और न ही इनके व्यस्त या बीमार आदि होने पर इनका कोई प्रतिनिधि ही। ऐसे में सवाल है कि राष्ट्रगान के नाम पर हो-हल्ला करने वाले ऐसे छद्म राष्ट्रवादी नेतृत्व में उस शहीद के बुझे कुल की ज्योति आख़िरकार कौन जलाएगा ? लेकिन उससे पहले तो मेरी चिन्ता ये है कि आख़िर इस सरकार के भीतर संवेदना की बुझी ज्योति को कौन जलाये !