Sunday, 18 March 2018

कहाँ गयी वो धुन हो रामा !




∙ अमित राजपूत



जीवन जीने का राग ही फिज़ाओं की धुन बन जाता है। धुन अगर मद्धम पड़ी तो जानों जीवन जीने की कड़ियाँ दुबरा गयी हैं और यदि वो कहीं ग़ुम हो गयीं तो फिर तय है कि हम अपनी सभ्यता को छोड़कर कहीं दूर निकल जा चुके हैं जहाँ अब वो धुन न सुनाई पड़ती होंगी क्योंकि वैसा जीवन जीने का राग हम बिसरा चुके हैं।

बहुत से समाजशास्त्री यह बताते हैं कि सभ्यताएँ अपने ढंग से बदला करती हैं और ये सच भी है। मगर, हम तब भी यह तय करते ही हैं कि कौन सी सभ्यता भली थी और कौन सी सभ्यता बुरी। इसे मापने के लिए एक मात्र तत्व है- सभ्यताओं के राग, जो मसलन उनसे बनकर निकलने वाली धुनों से साफ़ पकड़ आते हैं। किसी सभ्यता की प्रचलित धुन को सुनकर व महसूस कर हम उसकी जीने की कला, ढंग और यहाँ तक की उस समाज की सुख-समृद्धि का आंकलन समेत कर लेते हैं। इस तरह हम अपनी रुचिवश तय कर सकते हैं कि क्या भला और क्या बुरा !

यद्यपि भारतीय लोकगीत परंपरा में ऋतुप्रधान गीत-संगीत की धुनों का महत्वपूर्ण स्थान है। अर्थात् भारत में हर ऋतु के साथ यहाँ के जन-जीवन में एक गायकी को जोड़ा गया है और उस गायकी के माध्यम से हम अपने मनोदशा या मनोभाव को व्यक्त करते हैं, जैसे बसन्त ऋतु के दूसरे हिस्से चैत की मनोदशा को व्यक्त करने के लिए लोकजीवन की अभिव्यक्ति गायकी की हिन्दुस्तानी या उप शास्त्रीय संगीत के पहनावें में बंधकर चैती गीत का रूप धारण कर लेती है। तथापि ये महत्ता अब मात्र मंचीय रह ही गयी है, लोक में इसकी बानगी तो अब ढूँढ़ने से भी नहीं मिलती है। समकालीन सभ्यताओं के संक्रमण काल में नज़र फेरकर देखें तो हमें इसके अनेक प्रमाण भी नज़र आते हैं। उदाहरण के लिए चैत का ही महीना चल रहा है और इसमें मधुमास के गीतों का नज़र न आना।

बीती अमावस्या के साथ ही आधा चैत समाप्त हुआ और अब नवरात्रि आयी और देखते ही देखते रामनवमी भी बीतकर चली जा रही है। इस पूरे चैत मास में कभी चैती की धुनें हमारे समाज में गूँजा करती रही हैं। होलिका दहन के साथ ही ये गीत उठान ले लेते थे क्योंकि भारतीय पंचांग में चैत मास का आगमन हो जाता है जिसकी हवाएँ हमारे शरीर को मीठे आलस्य से भर देती हैं, ग्रीष्म ऋतु के आगमन की तैयारी शुरू होने लगती है, खेतों में किसान को अपनी मेहनत का सार्थक फल रबी की सुनहरी बालियों के रूप में नज़र आने लगता है। अब ऐसे माहौल में कण्ठों से उल्लास का गीत स्वयं ही फूट पड़ता है और फिर पूरे महीने इस चैती गीत को लोग गाँव-गाँव समूह बनाकर बड़े चाव से साज-बाज के साथ गाया करते थे। चैती उत्तर प्रदेश के अवधी-भोजपुरी क्षेत्र और बिहार के मैथिली-भोजपुरी क्षेत्र के लोकसंगीत की सर्वाधिक लोकप्रिय शैली है। ये चैती गीतों के गढ़ हैं। हालांकि वैसे छत्तीसगढ़, झारखण्ड और कुमाँऊ में भी चैती खूब गायी जाती है।



वास्तव में जीवटता को महसूस करने के लिए चैत से बेहतर कोई महीना नहीं है। ये समृद्धि का महीना है, सुख का महीना है और आनंद के रस में डूब जाने का महीना है। महाकवि कालिदास ने अपने ग्रंथ ऋतुसंहार में लिखा है- चैत्र मास की बासंतिक सुषमा से परिपूर्ण लुभावनी शामें, छिटकी चाँदनी, कोयल की कूक, सुगन्धित पवन, मतवाले भँवरों का गुँजार और रात में फूलों के रसों का गढ़ापान ये श्रृंगार भाव को जगाये रखने वाले रसायन हैं। यही कारण है की चैत मास को मधुमास भी कहा जाता है। चैत की नवमी तिथि को भगवान राम का जन्म होनें के कारण इन गीतों के अंत में रामा की टेक लगाकर मोड़ देने का प्रचलन ही इन गीतों का प्रतिनिधि हो गया है। हालांकि अब बड़ा स्पष्ट है कि हो रामा !’ की धुन बीत रहे इस चैत महीने में हमें कहीं सुनाई नहीं पड़ी है। ऐसे में अनुभूतियों की इतनी गहरी और वैज्ञानिक संवेदना के गीतों की धुनों में भी हम न डूब पा रहे हों तो वाकई चिंता का विषय है। धुनों से परे जीवन-प्रवाह का ये क्रम हमें स्पष्ट संकेत देता है कि हमारे जीवन से राग-अनुराग का विलोप हो गया है।

एक वक़्त था जब गाँव की चौपालों पर महफ़िलें सजती थीं और रात भर चैता गाये जाते थे। अब तो गाँवों में चैता गाने वाले लोग भी नहीं रह गये हैं। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी का समन्वय और अनुदान अवरुद्ध हो गया है। इन धुनों से इतर जीवन जीने का दूसरा सबसे कारण यह है कि हम दिल से जीना छोड़ दिमाग से जीने लगे हैं। ऐसे में हम संवेदनाओं और उनके आनन्दानुभव से अछूते रोबोट हो चले हैं या फिर पशु।

चैती गीतों के घटते चलन की चिन्ता बहुत बड़ी है। इसके लिए जितना आवश्यक है कि इसके आयोजन मंचो पर हों, अकादमियों में इसकी चर्चा हो, सेमिनार हों और फ़िल्मों में इसके ज़्यादा से ज़्यादा प्रयोग हों उससे भी अति आवश्यक है कि ये चैती गीत गाँवों में एक साथ बैठकर चौपालों में लोगों द्वारा गाये जायें। इसके लिए गाँवों का परिवेश बेहतर करने की ज़रूरत है। इन सबसे के लिए जन प्रतिनिधियों को आगे आने की ज़रूरत है। प्रायः जनप्रतिनिधि ग्रामीण विकास के क्रम में ये भूल जाते हैं कि हमें इसकी भी प्राथमिकता तय करनी चाहिए कि विकास के आरोह क्रम में ग्रामीण अनुराग का अवरोह किसी भी कीमत पर न होने पाये। अन्यथा फिर गाँव का ढाँचा ही ढाँचा शेष रह जाएगा और उसकी आत्मा कहीं पिंजरे में क़ैद हो जाएगी।

उक्त क्रम में चैती गीतों को गति प्रदान करने वाले लोगों में अभिनेता गोविन्दा की माँ निर्मला देवी और पद्म विभूषण दिवंगत गिरिजा देवी के बाद ठुमरी सम्राज्ञी सिद्धेश्वरी देवी की पुत्री विदुषी सविता देवी, उप शास्त्रीय गायिका सुचरिता गुप्ता, पारंपरिक लोक गायिका मंगला सलोनी और अवधी लोक गायिका इन्द्रा श्रीवास्तव जैसी विदुषियों को चाहिए कि ये सब अपनी शिष्य परम्परा को इतना सुदृढ़ और विस्तृत बना लें कि इससे गाँव-गाँव चैती गाने वालों की अनेक टोलियों का निर्माण हो चले और फिर से बसन्त में जैसे ही गुलाल की धुलेरी उड़ा करे तो उससे चैती के मीठे बोल झरा करें, ताकि किसी मंच से परे कहीं सुदूर गाँव के किसी मन में ये ख़्याल न आये कि मधुमास भरी सतरंगी चैती की कहाँ गयी वो धुन हो रामा !

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