Thursday, 8 March 2018

बुझी ज्योति को कौन जलाये !


∙ अमित राजपूत

साल 1857 ई. का सैनिक विद्रोह भारत से ईस्ट इण्डिया कम्पनी के उपनिवेश के अंत के लिए जाना जाता है। इसे हम स्वतंत्रता संग्राम की पहली लड़ाई के तौर पर भी जानते हैं। वास्तव में इस संग्राम के बाद से ही भारतीय साम्राज्य के रूप में भारत के भीतर राष्ट्र की संकल्पना ने जन्म ले लिया था। इसलिए हम बेशक इस विद्रोह को भारत के आधुनिक इतिहास में राष्ट्रवाद का बीज बोने वाला विद्रोह कह सकते हैं। इस लड़ाई के प्रमुख योद्धाओं में दुगवा नरेश मंगल पाण्डेय, प्रमुख 7 भारतीय रियासतें, ग्वालियर धड़े, अवध के अपदस्थ राजा के बेटे बिरजिस क़द्र, स्वतंत्र राज्य झाँसी की अपदस्थ रानी लक्ष्मीबाई, अवध के कुछ ताल्लुकेदार और ग़ाज़ियों ने अपने-अपने बैरल और तलवारें माँज रखी थीं। इस क्रान्ति में अवध के इन ताल्लुकेदारों में दक्षिण-पूर्वी दो-आब के अंतर्वेद इलाक़े में बसे जनपद फ़तेहपुर में खागा के ताल्लुकेदार ठाकुर दरियाव सिंह का बीते 6 मार्च को शहादत का दिन था।

खागा में दरियाव सिंह की गढ़ी को अंग्रेज़ों द्वारा तोपों से उड़ाए जाने के बाद भी बचे उनके कुछ इमारती अवशेषों में से एक दीवार की चोटी ही उनके जनपद की सेनानी समिति का औपचारिक प्रतीक भी है। इन्होंने झाँसी की रानी की तरह ही अपने ताल्लुके सहित आसपास के अन्य इलाक़ों को भी पूरे 32 दिनों तक आंग्रेज़ों से मुक्त कराकर अमन क़ायम करने में सफलता हासिल की और अपनी प्रजा को देश की आज़ादी से पहले ही आज़ादी का स्वाद चखा दिया। इसके लिए उन्होंने अंग्रेज़ी सेना से जमकर लोहा लिया था और अंततः एक देशद्रोही घनश्याम अहीर की अंग्रेज़ों के समक्ष गवाही के चलते ठाकुर दरियाव सिंह और इनके पूरे परिवार के ऊपर बगावत, धारा-8 कानून-25 सन् 1857 के अनुसार-खागा के सरकारी खजाने को लूटने, अंग्रेजी शासन के विरुद्ध मोर्चा लगाने, सरकारी डाक बंगला को जलाने तथा मुजफ्फर हुसैन ख़ान के कथित इलाके पर अधिकार करने आदि के अभियोग लगाये गये। इस प्रकार, इनके कुल के दीपक बेटे सुजान सिंह समेत पूरे परिवार पर अभियोग लगाकर सबको 6 मार्च, 1858 ई. को प्राण दण्ड का आदेश हुआ और सबके सब हँसते हँसते फाँसी के फंदे पर झूलकर अमरत्व को प्राप्त कर गये। इसी के साथ दरियाव सिंह के कुल की ज्योति भी सदा के लिए बुझ गयी।

इस तरह से जनपद फ़तेहपुर के प्रवर प्रतिनिधि के रूप में दरियाव सिंह को जाना जाता है। वर्तमान में यहाँ के जन प्रतिनिधि, प्रशासनिक अधिकारी और बुद्धिजीवी आदि  सभी अपने सरोकारों में इसे भी तय करते हैं कि इस अमर योद्धा की अमर ज्योति को हम सदा प्रज्जवलित करते रहेंगे, क्योंकि एक बड़ी सुन्दर पंक्ति भी है कि शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मिटने वालों को बस यही बाक़ी निशां होगा। ऐसे में आप ज़रा बस ये सोचकर देखिए कि ऐसे शहीदों की शहादत वाले दिन यदि मेले ही न लगें तो क्या होगा हमारी संवेदना का ? लेकिन ऐसा ही हुआ है ठा. दरियाव सिंह के साथ। बीते 6 मार्च को उनके शहादत दिवस पर ज़िला मुख्यालय के ज्वालागंज में लगा उनका स्टैचू श्रृद्धायुक्त एक फूल-पत्ती के लिए तक तरसता रहा। ये आलम तब है जब देश की मौजूदा सरकार राष्ट्रवाद का दंभ भरती है हालांकि उसके बरक्स आधुनिक इतिहास में राष्ट्रवाद का बीज बोने वाले विद्रोह के योद्धाओं से उसके कोई सरोकार नहीं दिख रहे हैं।

आपको ये जानकर आश्चर्य होगा कि फ़तेहपुर इस कथित राष्ट्रवादी सरकार की कट्टर राष्ट्रवादी छविग्राही सांसद और केन्द्रीय मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति का क्षेत्र है। इतना ही नहीं यहाँ के सभी 6 विधायक भी इन्हीं की पार्टी के हैं और उनमें से 2 राज्य सरकार में भी मंत्री हैं। इन सब में से कोई भी जनप्रतिनिधि दरियाव सिंह को नमन करने नहीं गया और न ही इनके व्यस्त या बीमार आदि होने पर इनका कोई प्रतिनिधि ही। ऐसे में सवाल है कि राष्ट्रगान के नाम पर हो-हल्ला करने वाले ऐसे छद्म राष्ट्रवादी नेतृत्व में उस शहीद के बुझे कुल की ज्योति आख़िरकार कौन जलाएगा ? लेकिन उससे पहले तो मेरी चिन्ता ये है कि आख़िर इस सरकार के भीतर संवेदना की बुझी ज्योति को कौन जलाये !

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