Monday, 28 December 2015

साक्षात्कार...



यूं तो भारत और योग का संबंध हज़ारों साल से भी ज़्यादा पुराना है। लेकिन हाल के कुछ दशकों में इसकी लोकप्रियता तथा स्‍वीकार्यता तेज़ी से बढ़ी है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यही है कि पुरातन प्रयासों के समानान्तर आज भी भारतीय ज्ञान की वर्षा सम्पूर्ण विश्व-जगत में हो रही है, भले ही औसतन उसका प्रतिशत कम हो किन्तु निःसंदेह रूप से हमारे योगियों, ज्ञानियों, ऋषियों और महात्माओं के द्वारा आज भी उसके पोषण के प्रयास निरन्तर जारी रहते हैं। ऐसे ही प्रयासों में लगातार ख़ुद को समर्पित करने वाले हैं योग व समाज-सेवा के क्षेत्र में भारत के राष्ट्रपति व देश-विदेश की अनेक प्रतिष्ठित संस्थाओं द्वारा सम्मानित योगी अरुण तिवारी जिन्होने भारत के अलावा संयुक्त राष्ट्र संघ सहित दुनिया के अनेक देशों जैसे श्रीलंका, यूरोप, स्वीडन, नार्वे, डेनमार्क, फिनलैंड, लुथवेनिया, अमेरिका और कनाडा आदि में योग-सुधार कार्यक्रम के माध्यम से हज़ारों लोगों तक योग को सही रूप में पहुँचाया है। योग को लेकर दुनिया भर में उनके प्रयासों की पड़ताल कर रहे हैं अमित राजपूत-


आप योग में पार्श्व कुण्डलिनी योग के स्वामी हैं। योग के छः प्रमुख आयामों राजयोग या आष्टांग योग, हठयोग, लययोग, ज्ञानयोग, कर्म योग और भक्ति योग में से पार्श्व कुण्डलिनी योग किसके अंतर्गत समाहित है?

जवाब- आपने जो योग की अलग-अलग विधाएं बतायी हैं, उनसे भिन्न है कुण्डलनी योग। इसके भी कई योग-गुरू हुए हैं जो अपनी अलग-अलग विधाओं के ज्ञान से लोगों को कुण्डलिनी योग का ज्ञान अनुभव कराने के लिए आगे आये हैं। लेकिन जो पार्श्व कुण्डलिनी योग है, एक जैन मत के अनुसार भगवान पार्श्वनाथ ने कुण्डलिनी योग के द्वारा ही निर्वाण प्राप्त किया, तब से इस कुण्डलिनी योग को हम पार्श्व कुण्डलिनी योग के नाम से जानते आ रहे हैं जिसे हमारे पूज्य गुरुदेव महाराज आचार्य श्री रूपचंद्र जी महाराज ने आध्यात्मिक रुप से निखारा है और इसे हम मिलकर जन-जन तक पहँचा रहे हैं।


योग की क्रियाओं के नाम यथा पशुवत आसन, वस्तुवत आसन, प्रकृति आसन, अंग एवं अंगमुद्रासन और योगीनाम आसन उनको वेशभूषित करने के लिए रखे गए हैं या फिर कोई और कारण हैं?

जवाब- ये प्रश्न हमारे सामने बहुत बार आता है और सबसे पहला प्रश्न आता है कि आसन कितने हैं, तो मैं यही कहता हूँ कि यदि आप हज़ार-दस हज़ार यानी संख्या में अगर देखें तो ये संख्या में नहीं हैं, क्योंकि हमारे ऋषियों-मुनियों ने पशुओं को देखा तो उनकी मुद्राओं को, उनके आसनों को मानव शरीर में उतारने की कोशिश की। मान लीजिए मोर को कुछ क्रियाएं करते देखा तो उन्होने इससे मयूर आसन की धारणा ली। किसी कीड़े को देखा, जैसे सांप को ही ले लीजिए वो कोई आसन बना रहा है तो उसकी क्रियाओं को देखकर सर्पासन या भुजंगासन की धारणा मिली। फिर उसको हमारे ऋषियों ने धारण कर शरीर में ढालने की कोशिश की। ऐसे ही वृक्षों के नाम पर आसनों के नाम पड़े, वस्तुओं के नाम पर नाम पड़े, जैसे धनुरासन। ऐसे ही तमाम मुद्राओं और बिम्बों को समझकर और चिन्तन के बाद उससे होने वाले लाभ को समझकर बड़े वैज्ञानिक रूप से शोधपरक ढंग से इनके नामकरण किए गए हैं।
इनके प्रमाण समझिए, जैसे मयूर है वो सांप को भी पचा लेता है, विष को भी पचा लेता है। तो उस आसन को करने से उसी की तरह हम शक्तिवान भी हो जाते हैं। हमारी पाचक क्षमता बढ़ जाती है। बाद में जब शोध हुआ तो ये साबित भी हुआ कि मयूरासन करने से सबसे ज़्यादा प्रभाव पेट पर पड़ता है। इसे करने से हमारे पेट के अन्दर जो ऑर्गन्स हैं वो सब स्वस्थ हो जाते हैं। मयूर आसन करने से हमारा फेफड़ा बहुत मज़बूत हो जाता है, इससे हमारी पाचक क्षमता बढ़ जाती है। तो हमारे योग ऋषियों ने कहा कि मयूर आसन करने वाला व्यक्ति कुछ भी पचा सकता है, यहां तक कि यदि कोई साधना करे तो वह विष को भी पचा सकता है। इसी तरह भुजंग की आयु का कुछ पता नहीं है, हज़ारों साल तक सांप जीता है। तो भुजंग आसन करने की कोशिश ऋषियों-मुनियों ने की और उसको साधा। और फिर जो परिणाम सामने आया वह यह कि आपकी आयु लम्बी होगी क्योंकि भुजंग आसन करने वाले का हृदय, फेफड़ा और मस्तिष्क इतना मज़बूत हो जाता है कि वह शक्तिशाली अनुभव करता है।


भारतीय योग को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता मिलते हुए आरम्भिक विश्व योग दिवस को आप किस रूप में देखते हैं?


जवाब- हमारे योग-इतिहास के लिए बड़े गौरव का प्रश्न हैं। ये हमारे देश के गौरव का विषय हैं। मुझे ख़ुद अपने आप पर ख़ुशी होती है, गर्व होता है कि सन् 2013 में मैने संयुक्त राष्ट्र संघ में पूरे एक घण्टे का योगाभ्यास और व्याख्यान किया जहाँ लगभग 40-45 राष्ट्राध्यक्ष भी उपस्थित थे। योग को लेकर यह यूएनओ के इतिहास में पहली बार था। तभी मैने देखा कि उन दिनों योग को लेकर यूएनओ में भी एक हवा थी और इसी बीच भारत से प्रधानमंत्री मोदी जी का प्रस्ताव आया जिसे सभी ने सहर्ष स्वीकार किया और अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रुप में हर भारतीय को गौरवान्वित होने का मौका मिला। और इसके साथ ही एक बात यह भी है कि पूरी दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में योग को पेटेण्ट कराने की होड़ में लगे हुए लोगों के गाल पर ये एक तमाचा भी सिद्ध हुआ। अब पूरी दुनिया में एकमत से यह स्वीकार्यता अवश्य बनेगी कि योग भारत की आत्मा की प्रबलता है। 


आपके अनुभवों के आधार पर हमें दुनिया के दूसरे देशों के लोगों की दृष्टि में बताएं कि वह योग को किस तरह से देखते हैं और हमारी दृष्टि उनसे किस तरह भिन्न है?


जवाब- सबसे बड़ा अन्तर है सोच का। यहाँ हम जिसेको भी बोलते हैं कि आप आसन कीजिए और इससे आपको फ़ायदा होगा तो उसमें प्रश्न नहीं आता कि क्यूँ फ़ायदा होगा, कैसे होगा, कितनी देर में होगा और क्या-क्या नहीं करना चाहिए। भेंड़चाल है। अग़र हमने दो हज़ार लोगों को यहाँ योग कराया तो उसमें प्रश्न करने वाले सिर्फ़ दस लोग होंगे। वहीं दूसरे देशों में हमने देखा कि दो हज़ार लोगों में ही लगभग अठारह सौ लोग प्रश्न पूछने वाले वहां हैं। अगर मैने वहाँ हार्ट के लिए योग बताया तो लोग पूछते हैं कि मुझे बैक-पेन है तो क्या मैं हार्ट का योग करूँ? यहाँ ऐसा नहीं है, किसी को हार्ट-पेन है तो वह पूँछेगा नहीं। वहाँ लोग प्रत्येक आसन का आधार जानना चाहते हैं, लोग तभी कोई योग करते हैं जब वो लगभग उसके वैज्ञानिक पक्ष को समझते है। इसके अलावा पश्चिमी देशों में लोग पैदल चलनें में भी सहज हैं। लोग दस किलोमीटर तक पैदल ही चले जाते हैं, जोकि हमारे यहां पहले होता था लेकिन अब भारत में लोगों ने पैदल चलना कम कर दिया है।

योग को आध्यात्म से जोड़कर देखना कितना उचित होगा?

जवाब- देखिए, वास्तव में योग आध्यात्म के बिना सिद्ध नहीं होता है। इसलिए योग आध्यात्मिक ही है, आसन एक पड़ाव है। यम, नियम, आसन, प्रणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और फिर समाधि ये योग के चरण हैं। जिन्होंने भी योग प्रस्तुत किया सब समाधि तक अपनी बात को ले गए। तो योग शरीर की यात्रा करके समाधि तक जाता है। सबसे पहले है आचरण इसलिए यम की स्थापना हुयी। फिर नियम में व्रत को धारण करना है, जिससे हमारी दिनचर्या दुरुस्त रहे। इसी तरह आसन से हम अपने तन-मन को साधते हैं। फिर इसी तरह हम क्रमशः प्रणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान के माध्यम से समाधि में विलीन होते हैं। तो ये सब पड़ाव पार कर पाना बिना आध्यात्म के सम्भव ही नहीं है। तभी हमें आत्मबोध हो पाता है। पूरी दुनिया में लोगों ने माना है कि आध्यात्म के बिना न मन में शान्ति हो सकती है और न हमें लक्ष्य का पता चल सकता है। इसीलिए सभी धर्मों और संप्रदायों ने आध्यात्म को स्वीकार किया है जिसे वास्तविक मायने में योग ने पूर्ण किया हु्आ है। आप देखिए, योग ने हमें जो दिया है वह एक सम्प्रदाय-मुक्त योग दिया है। योग भारतीय-संस्कृति का हो सकता है किसी धर्म का नहीं और इतनी स्वच्छंदता आध्यात्म के अलावा पूरे ब्रह्माण्ड में कहीं और नहीं है।


आज लोगों में योग की उपयोगिता के प्रति नज़रिया क्या है? क्या वो कुछ बदल गया है?


जवाब- योग का जो नज़रिया है वह अभी सिर्फ स्वास्थ्य तक रह गया है। पहले योग साधना-परक होता था। आज योग के नाम पर एक तरह से जैसे व्यापार सा हो रहा है और दिखावापन आ रहा है। पहले एक गुरू एक शिष्य को योग सिखाता था। अभी गुरू नहीं सिखा रहा है, एक व्यापारी योग को बेंच रहा है, बाँट रहा है और बाज़ार में दूसरे ख़रीददार उसे ख़रीद भी रहे हैं। पैसे देकर योग हो रहे हैं, जिनमें गुणवत्ता भी नहीं है। लोग दिखावेपन में भूल गए हैं कि योग से शरीर ही नहीं जीवन भी सधता है। आसन का अर्थ मात्र शरीर को तोड़ना-मरोड़ना ही नहीं है, इससे हमारी चिति भी स्वस्थ होती है। आज योग के क्रम बदल गए हैं। निःसंदेह योग के प्रति लोगों का नज़रिया बदला है। मै तो यही कहूँगा कि आज यह दिशाहीन हो रहा है। इसलिए हमें इसके प्रसार के साथ-साथ योग के सही प्रचार की ओर भी ध्यान देना होगा।


पश्चिमी देशों से 1990 में योग का विकसित रूप भारत आया, जिसे पॉवर-योग कहा गया। यह योग हर योगगुरु अपने मुताबिक कराता है। इसे आप कितना उपयोगी मानते हैं?


जवाब- (थोड़ा सोचकर)  देखिए, पॉवर-योग भी होता है और एक हॉट-योग भी होता है। पॉवर-योग से मतलब है हमारा जो हठ योग है। वास्तव में पॉवर-योग आष्टांग-योग का ही एक प्रकार है। और हॉट-योग जो है वह बंद कमरे में तक़रीबन चालीस डिग्री सेण्टीग्रेट के तापमान में, जहाँ सांस लेना भी दुर्लभ है वहां किया जात है। पश्चिमी देशों में योग को इंट्रेस्टिंग बनाने के प्रयास के चलते ये सब विकृतियां आयी हैं। जब ये इंट्रेस्टिंग होता गया तो युवाओं को बड़ा आकर्षित करने लगा। हॉट-योग करेंगे तो पसीना निकलेगा यही उन युवाओं की धारणा रहती है। योग से आन्तरिक शान्ति प्राप्त करना है, रोग-मुक्त होना है ये सब सरोकार उनसे छूटते जा रहे हैं। सही मायने में इसके कोई लाभ नहीं हैं। ये तनिक भी उपयोगी नहीं हैं। ऐसे ही तमाम योग हैं- ड्रामा-योग होता है। पिलाटे-योग होता है और हास्य-योग भी होता है। सच में इन्हें योग कहना ही व्यर्थ है, योग से तो तन के साथ-साथ मन, समाज, राष्ट्र और समस्त विश्व स्वस्थ होता है।


छोटे बच्चों के प्रति योग को लेकर तमाम भ्रांतियाँ रहती है। बच्चे कितने साल की अवस्था से योग का आरम्भ कर सकते हैं?


जवाब- जैसे ही बच्चा जन्म लेता है, किलकारी भरता है तो वह सबसे पहले ब्रीदिंग ही करता है। वह हाथ-पैर हिलाता है तो कभी अंगूठे को चूसता है, यानी वह अपने और माँ के वियोग के तुरन्त बाद ही योग से जुड़ जाता है। थोड़ा बड़े होने पर उनको खिंचाव के आसन और स्थिरता वाले आसन जैसे- वृक्षासन, एकपादासन आदि करवाएं। बच्चे लम्बी-गहरी साँसें लें और कठिन आसनों को थोड़ा हड्डियाँ मज़बूत होने के बाद करें। ऐसे आसनों से हल्की उम्र में थोड़ा बचना चाहिए, पाँच साल तक तो रुकें ही। मयूरासन न करें, भुजंग आसन आदि से बचें।


जिस तरह राम के निशान इस भारतीय उपमहाद्वीप में जगह-जगह बिखरे पड़े है उसी तरह योगियों और तपस्वियों के निशान जंगलों, पहाड़ों और गुफाओं में आज भी देखे जा सकते है। उस परम्परा को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य में आपके क्या प्रयास हैं?


जवाब- जैसे पार्श्व कुण्डलिनी योग की विधा को लोग नहीं जानते थे, जबकि यह विधा बहुत वैज्ञानिक है। अमेरिका के अस्पतालों में वहां के डॉक्टरों के साथ मिलकर हम ख़ासकर कैंसर के मरीजों पर इसका शोध कर रहे हैं। हमें बहुत अच्छे इसके परिणाम मिल रहे हैं। इसके साथ-साथ अन्य विधाओं को भी हम साथ लेकर उसमें भी शोध कर रहे हैं। अग़र ग़लत रूप में कहीं कोई ग़लत नाम में योग का प्रसार-प्रचार हो रहा है तो हमारा उन पर भी ध्यान हैं क्योंकि अग़र इनका मूल रूप लोगों तक नहीं पहुँचेगा तो हम जैसे योगियों का रहना ही व्यर्थ है। और ये सुधार ही इन ऋषियों-मुनियों के पदचिन्हों पर चलना, उनकी परम्परा को आगे बढ़ाने में और उन्हें बनाए रखने के लिए आवश्यक है। इसके अलावा मेरा व्यक्तिगत प्रयास सेना के जवानों को योग का प्रशिक्षण देना है। मै अब तक अपने भारत देश के दस हज़ार जवानों को योग का प्रशिक्षण देकर स्वयं गौरव का अनुभव कर रहा हूँ और मैं मानता हूँ कि इससे मेरा एक योगी होना सिद्ध हो गया।


आप अपनी प्रसिद्धि को किस रूप में स्वीकारोक्ति देंगे- भारतीय योगगुरू के रूप में, विश्व प्रसिद्ध युवा योगी के रूप में अथवा एक एनआरआई योगी के रूप में?


जवाब- (मुस्कुराते हुए) एनआरआई नहीं..। मैं हमेशा और कभी भी ये बात कहूँगा तो यही कहूँगा कि मैं एक भारतीय योगाचार्य ही हूँ। गुरू के आदेश और अपनी परम्परा के वशीभूत होकर मैं विश्व के दूसरे हिस्सों में योग पर शोध, उसको सही रूप में पहुँचाने के अपने प्रयासों और योग के प्रचार-प्रसार से जुड़ा हूँ। इसके पीछे हमारे ऋषियों-मुनियों का अनुकरण, मेरे गुरू का आशीर्वाद, मेरे बड़े भाई श्री अवधेश तिवारी का स्नेहिल सहयोग और मेरे सभी भारतीयों की प्रेरणा सदा अपने साथ लिये रहता हूँ।


 

Sunday, 29 November 2015

सिगरेट


• अमित राजपूत


उड़ा दो धुएँ से अतीत को
टूट कर गिरी है जो भद्दी राख
आज की आबोहवा के हल्के झोंके में
ऐश-ट्रे से उड़ जाने दो उसे।

हलक तक जाए जो ये काला धुआँ
तो खींच लो शौक से
आहिस्ता-आहिस्ता...
फिर खाँसो इस क़दर
कि झोंझ भर बलगम गिरे
खींच लाया हो जो नासूर सारे,
जख़्म बनकर
कोशिकाओं को जो छलनी कर रहा है आज भी

आसमान सारा सूना पड़ा है तुम्हारे लिए
भरो रंग जो सुकूँ दे ख़ुद को
उड़ा दो...
उड़ा दो धुएँ से अतीत को
उड़ा दो।

Saturday, 31 October 2015

आधी आबादी की पूरी आज़ादी...


शाम का वक़्त। तक़रीबन सात बज रहे हैं। चिरचित्त भाव से पूरे कम्पार्टमेण्ट में सन्नाटा है। लोग जिज्ञासाशून्य भाव से एक-दूसरे को देख रहे हैं और बार-बार बिखरे चिन्तन-पाश में ख़ुद को बांधने की कोशिश कर रहे हैं। साफ़ लफ़्ज़ों में हमें सुनाई पड़ रहा हैं- ‘अगला स्टेशन.. राजीव चौक, है। दरवाज़े दायीं ओर खुलेंगे।’
दरवाज़े दायीं ओर खुल गये। कुछ और लोग सहयात्रा के लिए उस कम्पार्टमण्ट के हिस्सेदार हो गए। वो सभी अन्दर आये और उनके ही साथ अन्दर आयी पूरी आज़ादी। जी हां, पूरी आज़ादी का बिम्ब बनी आधी आबादी का एक प्रतिनिधि मण्डल उस कम्पार्टमेण्ट में प्रवेश कर चुका था।
अगला स्टेशन कौन सा है, इसकी उद्घोषणा के स्वर कहीं किसी अनन्त में से विलुप्त हो चुके थे। लोगों की जिज्ञासाशून्यता रसपूर्ण हो गयी। सभी के चिन्तनविहीन मस्तिष्क में चिन्तन की क्रिया प्रारम्भ हो गयी। ये सब हमारी आधी आबादी की क्रियाशीलता के परिणाम स्वरूप सम्भव हो पाया था।
चार नवयुवतियों का एक समूह मेट्रो के इस कम्पार्टमेण्ट में है। ये मात्र चार युवतियां ही न थीं, बल्कि ये तो अपने अन्दर धर्म के प्रतीक चार स्तम्भों को समाहित किये थीं, इनका ये दल हमारे भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति का द्योतक है। इनकी आज़ादी और इनकी ही ग़ुलामी व अभिव्यक्ति के नियमन से ही हमें फौरन पता चल जाता है कि हमारे समाज में महिलाओं की वास्तविक स्थिति क्या है। उनका दशा क्या है। वह किस हाल में जी रही हैं। आज के समाज में वह कितनी आज़ाद हैं हमें इनकी ही अभिव्यक्ति से साफ़ पता चल जाता है।
इनमें से एक युवती को मैने दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कंवेन्शन में बोलते सुना था। विषय था- आधी आबादी और उनकी पूरी आज़ादी। ये युवती मुखर वक्ता थी। वो ख़ुद में किसी अदृश्य परतंत्रता से मुक्त होने की किसी ज़बरदस्त झुंझलाहट में  नज़र आती है जो कहीं और कभी नज़र भी न आ रही है और न ही कभी आयेगी, किन्तु यह स्वीकार्य है कि उनमें कोई परतांत्रिक पुट अवश्य है।
देखो न, पूरे कम्पार्टमेण्ट में सन्नाटा ही सन्नाटा बिसरा पड़ा है। न कोई कुछ चीं.. कर रहा हैं और कोई कुछ पूं...। लोग नज़रे भी मिलाने से एक-दूसरे से मोहताज हैं क्योंकि कम्पार्टमेण्ट में आज़ादी तैर रही है..। चारों एक-दूसरे को पूरी स्वच्छंदता से ज़ोर-ज़ोर गालियां बक रही हैं और खिलखिला उठ रही हैं। एक कहती है कि तू साली इतनी तो बहनचो# न थी बे। तो सभी ठहाके लेतीं। फिर दूसरी बोलती कि कुतिया फलां से ठो#वा के ही इतनी बहनचो# हो गयी है गाइज़। एक ठहाका और लगता।
सिलसिला यहीं न रुका। नीरस और मानसिक ग़ुलामी वाले लोगों के झुंड से भरे कंपार्टमेण्ट में ये हमारी नयी महिला ब्रिगेड जो हमारी भावी पीढ़ी और सभ्याता की नई इबारत लिख रही हैं एक-दूसरे के होठों का पाश बना रही हैं। कंपार्टमेण्ट में ही खड़े-खड़े पूरी आज़ादी से, जिसे देख बाकी ढीठ लोग मुंह फेर लिये, जिनके दिमाग़ में ग़ुलामी का जाला लगा था। मुझे हमारे देश की इस आधी आबादी की पूरी आज़ादी देखकर गौरव की अनुभूति होती रही है। वो आन्दोलन जो भारत में नारी-उत्थान के लिए पिछले समय से चल रहा था उससे जुड़े लोगों ने बड़ी जल्दी ही इस पर विजय पा ली है। मुझे इससे जुड़े लोगों पर अभिमान है। वास्तव में सुकून मिल रहा है कि हमारे समूचे देश की नारियां इतनी सशक्त हो गयीं हैं कि यूरोप भी पार न पाए। आधी आबादी की इस पूरी आज़ादी का यह प्रमाण आंकड़ेगत हमारे गौरव का प्रतीक है।

अगला स्टेशन आ चुका है। कम्पार्टमेम्ट में ग़ुलामी का अनुभव कर रहे कुछ संकुचित और रूढ़िवादी मानसिकता के लोग अब प्लेटफॉर्म पर थे जो कुछ भुनभुनाते से सीढ़ियों की ओर बढ़ रहे हैं...। 

Thursday, 22 October 2015

रावण दहन v/s विजय दशमी...


आज का रावण दहन। तमाम आतिशबाजियों के बीच धूल-धूषित कथित रावण के झूठे विनाश के जश्न में गर्दा फांकते रामभक्त।
अधिकाधिक हानिकारक रसायनों से बने बारूद से लिपटी ध्वनि व पावन समीर को प्रदूषित करने वाले बारूद के विस्पोट से उठते धुएं के ग़ुबारों को सूंधते रामभक्त।
रावण यातना देता था। रामभक्तों को जीने नहीं देता था। उसके निरंकुश शासन में लोगों की सांसे चलती थीं लेकिन रुक-रुक कर और वो भी न जाने किस पल उखड़ जाए, ठीक आज के प्रदूषण भरे वातावरण में जीने के बरक्स।
रावण यही तो चाहता था कि लोग उसके सरोकार में घुट-घुट कर जियें।
जब वो ज़िन्दा था तब भी लोग ऐसे जीते थे...
अब वो नहीं रहा तो लोगों को अपने विनाश के जश्न में इस क़दर डुवोकर चला गया कि लोगों को भान ही न रह गया कि वो कर क्या रहे हैं।
सच में, इन रामभक्तों को हुआ क्या...???
जो चाहा..वो पाया। तो जीत भी उसी की।
रावण जीत गया है।
तय करो ये विजय की दशमी आख़िर हम किसकी मना रहे हैं...?
हम वास्तविक विजय दशमी मना सकते हैं, लेकिन वास्तविक मायनों में। ख़ुद को भारी प्रदूषण से बचाकर जो आपका किया हुआ सबको भोगना पड़ता है।
इसलिए जागो..! और जीतो...!

शुभ विजयदशमी।

Sunday, 18 October 2015

प्रयाग का सनद...


किसी इन्सान के लिए एक तरफ विजय-जश्न व तमाम चैतन्य से भरे आनन्द का उत्सव हो और दूसरी तरफ़ ग़म-ए-मातम का दिन तो कोई क्या चुनना चाहेगा। ज़ाहिर है कि वो चाहेगा कि जीवन के रंगों में उत्साह ही उत्साह भरा रहे। चूंकि इलाहाबाद के लगभग हर मुसलमान घर में दशहरे का पर्व बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है। वे देवी विसर्जन में भी झूमते हुए जाते हैं और रात को निकलने वाली चौकियों में मुसलमान के घर पैदा हुए जाने कितने ही तमाम लड़के-लड़कियां राम-सीता, शिव-पार्वती और हनुमान के पात्र बनते हैं और हिन्दुओं के घर से उनके बच्चे मोहर्रम के मातम में शामिल होते हैं। (मेरे बड़े भाई का सगा साला भी मोहर्रम का मातम मनाता है।)
ऐसी अनूठी और गंगा-जमुनी तहजीब का शहर है इलाहाबाद। इस बार मोहर्रम और दशहरे की चौकियों का समय लगभग समान है। एस बाबत शहर के गणमान्य मुसलमानों ने ये निर्णय लिया है कि मोहर्रम में ताज़िये नहीं निकाले जायेंगे, ताकि शहर अमन से एक त्यौहार को मुकम्मल कर लिया जाए और चूंकि हर जगह पहले से दुर्गा पंडाल लग चुके हैं इसलिए मुसलमान भाईयों ने निर्णय लिया कि ताज़िये नहीं निकाले जायेंगे।
प्रयाग एक बार तुमने फिर से अपने बाशिंदों का सनद पूरे अवाम के सामने रख दिया। तुम्हे प्रणाम प्रयाग।
तुम्हे प्रणाम..।।।


हे दुर्लभ...!


सत्यधर्म पक्षधर भारत के अगुवा
सरदार सरोवर, राष्ट्र शिल्पी
रियासत-ए-हिन्द
रत्नजड़ित मणिका
हे दुर्लभ!
सरदार वल्लभ।
आनन्द औ वैभव के दाता
एकता के साक्षी

सरदार वल्लभ।

वो पतवार कहां हैं...


तहजीबें बदल गयीं
दरख़्तों की छांव बदल गयी
बदला है देखो ये कितना ग़ैरत ज़माना
हैरत है...
हम औ हमारा वतन कहां है
कहां हो!
सरदार....
जो देकर गये थे

वो पतवार कहां है?.

कहां हो सरदार...?


रत्नजड़ित मणिका हे दुर्लभ!
सरदार वल्लभ।
सरदार सरोवर में ये बहता नीर नहीं
रक़्त है तुम्हारा।
रियासत-ए-हिन्द
एकता के साथी
तुम ही हो भारत के सत्यधर्म पक्षधर
अवाम को वैभव, तहजीब और आनन्द तुम्हारी छांव से
तुम ही थे मांझी तुम ही पतवार

कहां हो सरदार...?

हम एक हैं सरदार...


सरदार... पटेल।
तुम बढ़ते गए...
तुम लड़ते गए...
न थमें कहीं।
न मुड़े कहीं।
तुमने हमें समझा।
तुमने हमें भी समझा।
हम एक सरदार

सरदार... हम एक हैं।

Saturday, 17 October 2015

एकता का जश्न...


जो हुआ ग़फलतन भूलो उसको
वो बहते आंसू, वो उठती चीत्कारें
वो, कुछ अनसुनी सी पुकारें
विस्मृत पिताओं की वो ठण्डी सी यादें
बल लो उनसे, और बढ़ो आगे
आओ...। एकता का जश्न मनाएं
सरदार पटेल को याद करें

एक रहने की प्रतिबद्धता जताएं।

एकय पुरोधा...


हज़ारों साल पुरानी सभ्यता का देश भारत
विविध प्रदेशों, भाषाओं, धर्मों, रीति-रिवाजों और खान-पान का देश भारत
एकता की ऐसी अनोखी इबारत
राष्ट्रवाद की स्याही से
एकता की ऐसी अनोखी इबादत
देशप्रेम के लहू से
एकय पुरोधा

सरदार वल्लभ।

जन्तर का मन्तर

कहानी:
(1)
भोर झड़ रही है। आसमान पर दूर.. वहां पीपल के पेड़ के उस पार से झांकते ललमुंहे सूरज के पीछे-पीछे कुछ चिड़ियों का झुंड इधर ही चला आ रहा है। यहीं पास के बइलहा तारा पर रहने वाली बतख्खें अपनी अजां में लग गयी हैं। हरश्रृंगार के पेड़ जिसकी डालियां बइलहा तारा की ओर झुकी हुयी हैं, पर लदे उसके सभी फूलों ने तालाब को अपना समर्पण कर दिया है। इस तालाब के पानी का ये श्रृंगार हर रोज़ होता है। फूलों की सुगन्ध से मदहोस इसके पानी ने रोज़ की तरह आज फ़िर प्रेम के गीत गाने शुरू कर दिये हैं। इस गीत पर बतख्खों की अज़ां मिलने से एक साज सा बजने लगा है, जिसे सुनकर सूरज भागा चला आ रहा है जो चुपचाप पोखर में उतर कर चुपचाप बैठ गया है।
अचानक कहीं से पायज़ेब के बजने की आवाज़ आ रही है। इसे सुनकर पोखर में बैठे सूरज में हलचल हुयी और पोखर के बगल में खड़े सरपत(खर-पतवार) के उस पार खेत में बैठे बिजइया में भी।
बिजइया तलाय फिर रहा है। उसने उचक कर सरपतों के बीच से देखा तो गांव की ही रनिया बइलहा तारा में मूंज भिगोने आयी है। मूंज ढेर सारी है।
कुछ ही देर में बिजइया तलाय फिर चुका। वह तारा में शौचना चाहता है। पर, शौचे तो कैसे? तारा के उस पार रनिया खड़ी है।
‘रनिया मुई-खानी इत्ती सबेरे-सबेरे हिंया कहां उफरे चली आई हय। जानत ही कि मढ़इन के तलाय जाय का टैम हवे। ऊपर से देखो एहिका टरतो नहीं आय।’ बिजइया मन ही मन रनिया को कोस रहा था।
रनिया मूंज के ढेरों को तालाब में डालकर वहीं बैठ गयी। उसकी नज़रे तालाब के उस पार हरश्रृंगार के पेड़ को देख रही थीं। वास्तव में वो नज़रें देख क्या रही थीं, कुछ ढूंढ़ सा रही थी रनिया हरश्रृंगार के पेड़ में। वो अपनी गर्दन लफा-लफा कर पेड़ से बातें सी करने को उठती।
उस पेड़ के ठीक सामने बिजइया सरपत की मेंड़ के उस पार खेत पर बैठा था।
‘य हरामखोर मोहिका देख लइगेहे का? मगर य उचक-उचक के मोहिका कहे ताड़त ही..? देखले... देखले एहिका!’ बिजइया चुपचाप सरपत की आड़ में दुबका जा रहा था और ख़ुद से सवाल करता जाता।
रनिया अब अपना सिर पीट रही थी और हाथ से बुलाने का कुछ इशारा भी करने लगी।
अब तो बिजइया हैरान था! ‘निर्लज्ज लड़की तोरे बाप के उमर का हों मै। य भाई बदनाम करदेई छोकरी। न य हिंया से टरी अ न मैं शउंच पइहों। ससुर शउंचे के चक्कर मा इज्जत गंवा बइठिहों मैं। लाओ ढेलेन से निपट के खसकी हिंयन से, कहे से कि आज-काल की बिटिहिनिन के शरीर मा यूरिया जोरान ही।’
बिजइया जल्दी ही वहां से निपट कर खेतों के रास्ते ही गांव की ओर चला गया। रनिया अभी भी उस हरश्रृंगार के पेड़ की ओर देख रही है। उसने देखा कि सुड्डनवा अब उस पेड़ से उतर कर उसकी ओर आ रहा है।
‘हद्द होइगे। ओतनी देर से ताड़ित ही कि जाने कहां रहिगें। आंय भी हवें कि नहीं। पेड़ तो हरसिंगारेन का कहेन रहा...। लागत है देखात नहीं आय कि दिन निकरियावा..।।’ रनिया सुड्डनवा पर बिफरने लगी।
रनिया और सुड्डनवा दोनो ही हमउम्र हैं। जवान हैं। अभी-अभी दोनो में इश्क हुआ है। हुआ क्या है अभी दोनो प्रक्रिया में ही है। वही आज भोर में बइलहा तारा पर दोनो के मिलने का प्रायोजन था।
सुड्डनवा भी कम न था। मोहब्बत पर अधिकार जताना उसे भी आता था। ‘अपने क-कहो यार तुम। मैं तो अंधेरेन मा आ गैंव रहा। फिर देखेंव कि कउनो आ रहा है। आगे बढ़ेंव, तो रहें बिजइया काका। ऊं.. हिंयन तलाय करे लागें तो मैं कहेंव कि अबहिन देख लई जइहें तो कइहें कि पण्डित जी का लरिका हिंयन का करत हवे। मैं चढ़ गैंव भाई हरसिंगार के पेड़ मा। अब ओतनेन मा तुम आइव, तो कहेका काका शउंचे आवें तारा कइती। रजा ढेलेन से पोंछ के निकर लिहेन।’
‘हा..हा..हा..हा..हा..हा..।’ दोनो ने जमकर ठहाके लगाए। और संजीदगी से एक-दूसरे की तरफ देखते हुए कल ठीक समय पर मिलने की प्रतिबद्धता जताकर चल दिए।
सुड्डनवा खेतों के रास्ते हाथ झुलाते मस्ती में गाता चला गया और रनिया अपने मूंजों को ठीक तरह से पानी में डुबोकर चंचल चित से अपनी चोटी को उंगलियों में फंसाती हुयी चली जा रही थी। दिन चढ़ने के साथ तालाब में हरश्रृंगार की सुगन्ध भी फीकी पड़ रही थी। वो उड़कर पीछे-पीछे रनिया के साथ कच्ची सड़क के रास्ते उसका पीछा करते चली गयी।
(2)
आज गांव में बड़ी रेलमपेल मची है। लोग आ रहे हैं और जा रहे हैं। कुछ सरकारी गाड़ियों की चहल-पहल दिख रही है। पान-परचूनों की दुकानों पर कुछ सरकारी मुलाज़िम खड़े होकर कोने में पीच मार रहे हैं और कुछ हवा में बीड़ी का धुंआ उड़ा रहे हैं।
कुछ ख़ास किस्म की होर्डिंग लगी एक गाड़ी गांव के बीचो-बीच सड़क से गुजर रही है। गाड़ी के डाले पर बैठा एक आदमी माइक से कुछ महिला-वहिला टाईप बोले जा रहा है। दूसरा, पीले रंग के कुछ रद्दी से पर्चे हवा में उड़ा रहा है जिनको गांव के छोटे-छोटे बच्चे एक हाथ से उठा रहे हैं और दूसरे हाथ से कोई अपनी निक्कर संभाल रहा है, कोई अपनी नाक पोछ रहा है तो कोई उस टॉयर को कीमती कोहिनूर सा धरे है जिसे वो अभी-अभी एक छोटी सी डंडी से पीटता चला आया है।
कुछ ही देर के बाद कलुवा डोमार पूरे गांव में अपनी डुग्गी पीटने लगा और ज़ोर-ज़ोर से कहता- ‘सुनो...! सुनो...!! सुनो...!!! सब गांव वालेन का पंचाइत भवन मा एकट्ठा होएका है। कलट्टर साहेब भांषण देहें। सुनो...! सुनो...!! सुनो...!!!’
सभी पंचायत भवन पर इकट्ठा हैं। इस भवन की आज कुछ ख़ास तरह से सजावट की गयी है। दीवारों पर तमाम महिला शख़्सियतों की तस्वीरें टंगी हैं। छाया के लिए पीले रंग की तिरपाल लगायी गयी है। महिलाओं के बैठने के लिए मंच से सटाकर एक दरी बिछी है। उस पर गांव की औरतें बैठी हैं जिनके इर्द-गिर्द कुछ छोटी-छोटी बच्चियां चहक रही हैं। उसके पीछे दो पोलों के सहारे एक रस्सी बंधी है। और फिर उसके उस पार सभी पुरुष जन एकत्रित हैं।
‘अपने बल मा ठाढ़ होव नहीं तो अबहिन उठा के दई मारब घोड़ऊ के।’ सुड्डनवा को किसी ने धक्किया दिया है।
‘मैं नो अहिंउ सुड्डन भइया। य महेन्दवा आय।’
‘देखलेव मैं चुपचाप ठाढ़ हों भइया।’ महेन्द्र ने अपनी सफाई दी।
‘मूं बंद कईलेव अच्छा सारेव..। चुप्पे सुनों ओकई का याय होत है।’ सुड्डन ने सावधान किया।
‘क भइया, व जउन फोटू टांगी है। ...व जउन मेहेरिया जहाज उड़ावत ही।’
‘हां-हां बता।’ सुड्डन ने जल्दी ही उसकी इच्छा जाननी चाही।
‘कहत हें कि व जहाज नहीं उतार पाई रही भुंई मा। सूरज से गरम होइके ओकी जहाज गलगे रहै। फिर वा मरगे?’ महेन्द्र ने अपनी बात पूरी की।
‘गदहा व कल्पना चावला की फोटू आय। सूरज-ऊरज से ओकेर जहाज नहीं गरम भे रही। चुप्पे देख, का होय जात है हिंया। ...अच्छा देख, मंच मा कलेक्टर का तो तैं जन्तेन हन, हना? ईं अपने तहसील की एसडीयम अहीं भला। मेन कलेक्टर जिला मा बइठत है। अउर उनके बगल मा व जउन एक लड़की ठाढ़ ही ना, ओका नाम जन्ते है तैं?’
‘उंहूं..’
‘ससू व मोर फ्रेण्ड ही।’
‘का..! व तुमका जनत ही?’ महेन्द्र को सुड्डन की बातों पर यक़ीन न हो रहा था।
‘अबे अइसिन नहीं जानत। व हमरे फेसबुक मा हवे। य झार मेहेरियनेन की फोटू डावा करत ही अक्सर।’
महेन्द्र से रहा न गया और वो बोल पड़ा- ‘सुड्डन भइया, बुरा न मानो तो एक बात कही?’
‘कहो।’
‘कटरीन कैफ क जानत हो ना? व हमार फेरेण्ड आय। मगर व हमका अइसिन नहीं जानत, बाकी ओकेर फोटू हमरे पर्स मा है।’ महेन्द्र ने तफरीह की।
‘बकलोल, तैं जीवन भर गुंहेन उठइहे। गदहा पर्स औ फेसबुक मा बहुत अन्तर है। अब अन्तर का है, मैं तोहिंका य न बता पइहों समझे? कउनो तैं या तोर बाप मोहिका घिउ नहीं परस जात अहीं। चुप्पे सुन। देख मैडम का बोल रही हैं।’ सुड्डन ने थोड़ा नाराज़ होकर कहा।
मंच पर एसडीएम का भाषण शुरू था।
‘.. तो इस तरह मिस वीणा श्रीवास्तव ने बहुत ही कम उम्र में समाज को ऊंचा उठाने का जिम्मा अपने नाजुक कंधों पर लिया है। आप सब अगर अपनी औरतों और बेटियों का ज़्यादा से ज़्यादा ख़्याल रख पाएंगे, इज्जत देंगे तो समझना कि आप मिस वीणा जी के कंधों को मज़बूती दे रहे हैं। आज इस गांव में वीणा जी आपसे अपनी यही बातें कहने आयी हैं। मिस वीणा जी की मदद केलिए हमारा प्रशासन भी इनके साथ हर क़दम पर खड़ा रहेगा मैं इसका विश्वास दिलाती हूं।’
एसडीएम के अन्तिम भाषण के बाद सभी ने तालिंया बजाई। गांव में फिर से लोग बिखरने लगे। औरतें अपने काम पर निकल पड़ीं। छोटे-छोटे बच्चे अपने टॉयर लेकर पगडंडी पर दौड़ने लगे।
(3)
आज भोर किसी ने देखी ही नहीं सुड्डनवा को छोड़कर। ख़बर है कि रनिया के घर गाय को बछड़ा हुआ है। वो अपनी अम्मा के साथ उसी नवजात की देखभाल में लगी है। लेकिन सुड्डनवा को बइलहा तारा के किनारे सुकून मिलने लगा था। अब पता नहीं कि ये उस पोखर की सुषमा और उसके आकर्षण का सुकूं था या फिर यहां रनिया के साथ बीते हुए कुछ पलों की स्मृति में डूबने वो यहां चला आना पसन्द करने लगा था। बहरहाल जो भी हो सुड्डनवा तारा के किनारे आकर फिर से हरश्रृंगार के पेड़ पर चढ़ गया। वहां से पोखर के दृष्टा का दृष्टिकोण ही बदल जाता है, जो उस पोकर के वातावरण को और भी ख़ूबसूरत बना देता है। 
बिजइया को भी आज देरी हुयी थी। कल शाम को चौपाल के बाद कुछ दिलदार बड़े-बुज़ुर्ग खेलावन के ट्यूब-वेल का रुख़ कर गये थे। उसमें बिजइया भी शामिल था। दरअसल गांव के खेलावन मुराई के ट्यूब-वेल पर ‘कच्ची’ बनने का चलन है। ‘कच्ची’ एक तरह की शराब है जो महुआ के फूलों को सड़ाकर तैयार की जाती है। तो फिर क्या था, कल जमकर बनी और ठूंसकर चली। सो बिजइया ने भी अपने नटई तक गटकी थी कल। इसी कारण आज देर तक वो बिस्तर न छोड़ सका था।
ख़ैर, बिजइया आकर सरपत की आड़ में नित्य-क्रिया में लग गया। कल की एल्कोहल से उफनते पेट ने गुर्राहट मचाई और कुछ पड़..पड़..पड़.... की आवाज़ फूट पड़ी। ये आवाज़ वहां.. हरश्रृंगार के पेड़ पर चढ़े सुड्डनवा के कानों तक जा पड़ी। सुनकर सुड्डनवा भुकभुका गया, क्योंकि उसकी पोखर से नैनमिचोली जो टूट गयी थी। उसने एक सांस में बिजइया को दसों गालियां दे डाली। लेकिन फिर भी उसका मन भरा नही।
उसका पोखर की ओर से ध्यान भंग हो चुका था। रनिया भी उसके साथ ना थी जो उसका ध्यान लगा रहता। फिर भई ख़ाली दिमाग़ शैतान का घर। बला शैतान क्या न कर जाए। उसने झटपट अपने जेब से मोबाइल-फोन निकाला और बिजइया की चार-पांच तस्वीरें अपने मोबाइल-फोन के कैमरे में क़ैद कर लीं।
‘हरामखोर क यही जघा मिला करत ही उफरे का।’ बिजइया के शौच कर चले जाने के बाद सुड्डनवा पेड़ से नीचे उतर कर भुनभुना रहा था।
वो घर जाने कोमुड़ा। पीछे रनिया खड़ी थी।
‘का हो बांके बिहारी के लाल! तनी थम भी जाओ।’ रनिया ने सुड्डनवा से मसखरी की।
‘देख रे हम कतो अपने बाप का नाम नहीं लीना अइसी जबान से। तैं हमरे बाप तक न चढ़ जानिन, नहीं तो ठीक न होई हां।’
‘तो जइसे ठीक होय कइ देव पण्डित जी।’ रनिया अपनी चोटी हिलाकर बोली।
‘मोका ठीक तो करेन क परी, मगर तोहिंका नहीं बिजइया काका का।’ सुड्डनवा का मुंह अब भी लाल है।
‘का हो! का अनर्थ कई डाएन बिजइया काका एतना, जउन या पेड़ा जइसन मूं बनाएव है। एका तनी लड्डू जइसे रहै देव ना। हां, अब बताओ का बात है?’ रनिया सुड्डन का हाथ पकड़कर पोखर की तरफ चलने लगी।
‘यार जब देखो पिछुआरा उनार के हिंया फड़फड़ाय लागा करत हंवें। ससुरन का हग्गे का जगेन हस कहूं नहीं मिला करत ही। तुम ख़ुद बताओ हिंया, य तारा किनारे केतना बढ़िया लागत हवे, हांय..। कउनतान केर आनन्द हिंया हवे। मगर यहू तलक का गंधुवाय रहत हैं ईं घोड़ा हरे। मै आज एहिकी सारे की हगत की फोटू खींच लिये हौं।’
‘हरामी...।।’
‘हरामी नहीं, एहिका मैं डइहों फेसबुक मा। अउर ऊपर हेडिंग लिखिहों गुड मारनिंग।’
‘कस्सम से तुम हो बड़े वा। पता है इंटरनेट मा चला जाई तो हर कोऊ देखी। जउन देखी व मड़ई का कही?’ रनिया को चिन्ता थी।
‘मड़ई का कही। शहरन के बड़े-बड़े स्वीमिंग-पुलन मा भी भला मड़ई शउंचत हें का। हुंआ तो मड़ई चाव से सिर्फ़ बइठा करत हें। तो तुम अपने गांव मा भी समझो य बइलहा तारा आय स्वीमिंग पुल। अउर हम, तुम अ ईं बतख्खें आई हंवें हिंया घूमें। तो ससुर बिजइया काका कउन होत हंवें हिंया हगे वाले। य तारा उनके बाप की कउनो बपउती आय का।’ सुड्डनवा जज़्बाती होता चला गया।
और रनिया भी उसकी धारा में साथ बहती चली जा रही थी। ‘हुंआ शहरन मा इनकी सबकी सरकार देखभाल करत ही। हिंया तो परधानिन का लरिका दहिजार खुदेन खेतहा मा जात है।’
‘देख रनिया, खेतहन का तो मैं ठेका नहीं लिहों मग़र आज से मैं यही हरसिंगार के पेड़े मा बइठा करिहों अउर जउन भी हग्गे आयी ना, ओहिकी फोटू मैं फेसबुक मा ओहिके सारे के नाम-गांव सहित डइहों..।’ सुड्डन का निश्चय दृढ़ था।
‘ठीक है डाएव। यही बहाने हम पंचेन का य तारा किनारे बढ़िया होईजाई घूमे-टहरे का।’ रनिया भी सुड्डनवा के साथ थी।
सुड्डन ने वहीं तारा किनारे बैठे-बैठे अपना फेसबुक खोला और बिजइया की खींची गई तस्वारों में से उसने चार तस्वीरों का एक कोलेज बनाकर ऊपर लिखा-
‘गुड मॉर्निंग...
दोस्तों,
नाम-बिजइया काका
उम्र-लगभग 48 साल
गांव- सरसई ख़ुर्द
पता- पक्की कुंआ के सामने, सहेंड़वापर, सरसई ख़ुर्द, खागा-फ़तेहपुर (उ.प्र.)
दोस्तों इनकी ओर से आप सभी लोगों को खुली हवा का सलाम तोहफ़ा।’ और पोस्ट कर दिया।
(4)
पायज़ेब की छनछन...। कन्धे पर मूंज का एक ढेर। एक हाथ में घी से भरा दीपक और दूसरा हाथ मूंज के ढेर पर। कमर हिलाती आयी रनिया तारा के समीप पहुंची। वो आज जल्दी आ गयी है। उसने घी का दीया जलाकर बइलहा तारा में छोड़ा ही था कि पीछे एक और जलता घी का दीपक लिये सुड्डनवा भी खड़ा था।
‘का रे, तोर महतारी तो बड़ी चुगुलखोरिन निकली।’
का भा..? देखो हो, फिर तुमहूं हमरे महतारी तक न चढ़ो जानेव।’ रनिया बात समझी ही न थी।
‘काल उईं दुपहरिया मा मोरे दुआरे बइठी रहीं, तबहिन मैं सबके सामने कहे रहेंव की नदी-तलाव मा घी का दिया छोड़ब शुभ होत है। नदी-तलाव खुश रहत हैं तो आनन्द बढ़त है। अउर उईं रहीं कि टीप दिहिन जाके तोसे। तउन तहूं घी केर दिया लइके चली आइन हिंया।’
‘हाय दइया.., जउन झूठ बोले सरगे जाए। हमार अम्मा कुछू नहीं कहिन हमसे। हम तो ई सब खुद सोचा रहा अउर यही से एक बोझ मूंज भी ले आवा कि पानी मा डाल के हिंयेन बइठब, ताकी कोऊ भी हमका तारा किनारे देख के तारा मा शउंचे न आई। जइसे व दिन बिजइया काका। याद है न...? जब ढेला.. हां?’ रनिया ने अपनी सफाई दी।

सुड्डनवा को अब काटो तो ख़ून नहीं। वो शान्त वहीं खड़ा रनिया का मुंह ही ताड़ता रह गया। जब तक रनिया शान्त होती उससे पहले ही उसने झुककर पोखर को दीपदान कर दिया और वहीं चुपचाप बैठा रहा।
रनिया भी उसे देखकर उसके समीप बैठ गयी।
‘का देखत हो?’
‘दुइनो दिया।’ सुड्डन संजीदा था।
‘का चहती है रे रनिया, ईं दुइनो दिया कब तलक जलत रहें..?’ सुड्डन ने बात ज़ारी रखी।
‘जब तलक ई तारा मा पानी रहे।’ रनिया अपने मन की बात कहने की कोशिश कर रही थी।
‘तब तो हमका मिलके य तारा के पानी की रक्षा करे क पड़ी।’
‘तबहिन तो आज एमा लौ जलाए दिया हवे रे।’ रनिया ने और भी स्पष्ट करते हुए सहमति दे दी।
दोनो ही कुछ क्षण के लिए वहीं लेट गये और करवट लेकर एक-दूसरे की आंखों में आंखें डालकर और शब्दों की आवाजाही को थामकर बस, पोखर में बहते हुए दीपकों की लौ को ही अपने-अपने हृदय के शान्त जल में बहने दिया...। जलने दिया...।
(5)
धूप चिलचिली हो चली है। हरश्रृंगार के पेड़ पर चढ़े-चढ़े सुड्डनवा को काफी समय हो गया। हालांकि उसने अपने मोबाइल-फ़ोन के कैमरे से सत्तर बरस के रामाधीर की तस्वीर ले ली थी, उसी अवस्था में जैसे उसने बिजइया की तस्वीर ली थी। लेकिन फिर भी सुड्डनवा बिजइया की ही प्रतीक्षा में अब तक पेड़ पर चढ़ा बैठा है। तब भी बिजइया नहीं आया तो नहीं आया।
सुड्डन ने बुज़ुर्ग रामाधीर की भी तस्वीर को फेसबुक पर उनके नाम-पहचान व पता के साथ पोस्ट कर दी।
‘बिजइया काका तीन-चार दिन से तलाय कहे नहीं आ रहे हैं इधर? वही दिन से रामाधीर बाबा भी नहीं दिखाई दिहेन! ओके बाद तो तुनुवा का बापो नहीं आवा आय! ईं सब मोरे बारे मा जान तो नहीं गें आय कि मैं इनकी फोटू खईंच लेत हों?’ सुड्डन आज सुबह से हरश्रृंगार के पेड़ पर चढ़ा सिर्फ़ ख़ुद से ही बातें करता रहा।
ये सब सोचकर उसकी चिन्ता बढ़ रही थी। लेकिन उसकी ये चिन्ता उसके लिए कोई मामूली चिंता न थी। वो झटपट नीचे आया और रनिया के पास जाकर अपनी चिन्ता का कारण बताया। रनिया को भी इस मामले के बारे में कुछ ख़ास समझ नहीं आ रहा था।
आज की खींची गयी तस्वीरों को पोस्ट करने के बाद सुड्डन सीधे बिजइया के घर पहुंचा।
‘बिजइया काका..। वो बिजइया काका..।।’
‘कस लाला सुड्डन, का हाल हवे?’ बिजइया लाल चौकड़ी की कमीज़ पहने घर से निकलकर सुड्डन से मुख़ातिब हुआ।
‘कुच्छू नहीं काका, खेतहन कइती जात रहेंव तो मैं कहों कि काका केर हाल-चाल लेत चलों बहुत दिना से भेंट न भे रही।’
‘सब भगवान की किरपा है लाला। तनी घर मा सण्डास आय बनुवावत रहेन। कइउ दिना से लागा लगुवाय रहा, बस नचका याई है। यही के मारे तनी के निकर नहीं पउतेंव आय घर से।’
‘कहो, अबे तो गांव मा निरा ससू फिरे की जगह परी हवे, चहे जउने कइती निपटियावे। बइलहा तारेन कइत अबे महाव जगह परी है।’ सुड्डन ने बिजइया के विचार जानने के लिए ये सब कहा।  
‘अरे नहीं हो लाला, नीक-सूक तारा कइत गन्दगी करब ठीक नही आय।’
‘एहिकेर एण्टीना आज बीबीसी लंदन कहे पकड़ रहा है।’ सुड्डन ने ख़ुद से कहा। 
‘है की नहीं लाला..?’ बिजइया ने सहमति मांगी।
‘आंए...! हां.. हां-हां।’ सुड्डन समझे-नासमझे अपनी सहमति बिजइया को देकर आगे बढ़ गया।
अब तो सुड्डन की चिन्ता और बढ़ गयी। ये अचानक से बिजइया को क्या हो गया? इसके विचारों में ये परिवर्तन कैसे आया? और अचानक से इसकी मदद किसने कर दी? ऐसे ही तमाम सवाल सुड्डन के दिमाग़ में रथ हांकने लगे। वो भागकर रामाधीर बाबा के घर पहुंचा। पूरी तफ़्तीश के बाद सुड्डन की चिन्ता और भी भारी पड़ने लगी, क्योंकि जो हाल बिजइया का था वही रामाधीर के घर पर भी था। रामाधीर के घर पर भी शौचालय बनने के लिए गड्ढा खोदा जा चुका था। सुड्डन ने दो और उन घरों के चक्कर काटे जिनकी तस्वीर उसने अपने फेसबुक पर अपलोड की थी। उन सभी के घर पर भी शौचालय बन रहा था। सुड्डन हैरान था। उस दिन सुड्डन को रात भर नींद नहीं आयी।
(6)
‘बाबा य कउनो मन्तर-वन्तर नो हाय, बिना मतलब मा घबराओ ना।’ रनिया सुड्डन को उसकी चिन्ता का विश्लेषण करके समझाने में व्यस्त है।
‘फिर य कसत होइ सकत है रनिया, कि हम जेकी-जेकी फोटू खींचा ओके-वओके घर मा सण्डास बने लाग?’
‘तो तुम एसे खुश नहीं हो का कि सब लोग अब बाहर न अइहें तलाय फिरे।  एसे तो य तारो साफ-सुथरा बनी।’ रनिया ने पूछा।
‘नहीं मैं खुश तो हों। मगर फिरो यार एमा कउनो जादू-मन्तर लागत है मोका।’ सुड्डन ने अपनी चिन्ता को स्पष्ट करते हुए उसे ज़ारी रखा।
‘तुम चुप्पे-चाप आपन काम चालू रक्खो।’ रनिया ने सख़्त होकर सलाह दी।
सुड्डन ने रनिया की बात मान ली और झट से हरश्रृंगार के पेड़ पर चढ़ गया, किसी अगले को अपने मोबाइल-फ़ोन के कैमरे में कैद करने को।
(7)
पूरे दो महीने बीत गये। गांव के लगभग हर उस घर में जहां शौचालय नहीं था, या तो बन चुके हैं या फिर अभी बन रहे हैं। लेकिन सुड्डनवा की चिन्ता अभी भी वही की वही बनी है, कि आख़िरकार ये सब अचानक से एक साथ कैसे होने लगा।
इस बीच वो एक तांत्रिक से भी मिल चुका है कि बाबा जाने किसके तन्त्र-मन्त्र से ये सब हो रहा है। मैं खुले में शौच करते हुए जिसकी भी तस्वीर फेसबुक पर डाल देता हूं उसके घर में सण्डास बनने लगता है, जबकि मैं चुपचाप ही ये सब करता हूं, बिना किसी से बताए, बिना किसी से कुछ भी कहे। इस मन्तर का कोई पार नहीं।
लेकिन सुड्डन अन्दर से बहुत ही ख़ुश है, क्योंकि अब बइलहा तारा के पास कोई गन्दगी करने नहीं आता है।
(8)
दिन ढल रहा है। मौसम सुहाना हो गया है। पक्षी अपने विहार से वापस लौट रहे हैं। पेड़ों ने धीरे से अपने पत्तों को हिलाकर फिर से स्निग्धता ओढ़ ली है। हरश्रृंगार के पेड़ पर कलियां आयी हैं, उसकी सुगन्ध धीरे-धीरे प्रकृति की रूह में मिलने लगी है। बतख्खें बइलहा तारा में उतरने लगी हैं। सूरज भी शान्त भाव से अपने घर को वापस जाने को विदा मांग रहा है। और हरश्रृंगार के पेड़ के नीचे सुड्डन रनिया के साथ बैठा है। लेकिन उसकी चिन्ता अभी भी उसी तरह जस की तस बनी हुयी है, ये सब किसका मन्तर है...?
दूर से कहीं कलुवा डोमार के डुग्गी की आवाज़ आ रही है। रनिया सुनकर उठ खड़ी हुयी। उसने गांव की तरफ नज़र दौड़ाईतो हाल ग़ज़ब था। रनिया थोड़ा घबरा सी भी गयी। गांव के कुछ लोग अपने हाथों में जलती हुयी मशाल लेकर बइलहा तारा की ओर तेज़ी से बढ़े आ रहे हैं।
रनिया के मन में अनजाना सा उहापोह चल रहा है। लेकिन सुड्डन शान्त वहीं पर बैठा रहा.. उदात्त, निश्चल और बेफ़िकर...।
‘सुड्डन देख गांव वाले इधरेन चले आवत हें। उनके हाथ मा मशाल भी हवे। का होइगा..?’
‘मन्तर...। य वहीं मन्तर का हिस्सा आये। मान या ना मान रनिया, मगर देखिस कुछ तो है। हल यही मा है।’
गांव वालों का हुजूम एकदम बइलहा तारा के समीप था।
कलुवा डोमार ने आवाज़ लगाई। ‘सुड्डन महराज...। ओ सुड्डन महराज...।। देखो तुमसे मेम साहब मिले आयी हवें।’
सुड्डन ने खड़े होकर अपना हाथ हिलाया। सभी उसके पास आ पहुंचे। सुड्डन ने देखा कि गांव वालों के हाथों में जलती मशालों की रोशनी बइलहा तारा में पड़ते ही वो चमक उठा। सुड्डन के साथ गांव वालों ने भी ये मनोरम दृश्य देखा। वास्तव में सरसई ख़ुर्द गांव में ये नज़ारा इससे पहले कभी नहीं देखा गया था।
सुड्डन के दिमाग़ में जो मन्तर का बादल उमड़-घुमड़ रहा था, अब वो कुछ-कुछ झड़ने लगा था। सामने अपने फेसबुक की उस मित्र वीणा श्रीवास्तव जो उस दिन एसडीएम साहिबा के साथ पंचायत भवन में भाषण दे रही थी, को देखकर हैरान लेकिन संदेह से परे था।
‘हैलो सुड्डन! मै वीणा, एक सामाजिक कार्यकत्री हूं। मुझे फेसबुक पर आपके पोस्ट लगातार मिलते थे और मै उनको फॉलो करती गयी। मैने उन पर अच्छी तरह से विचार किया और एसडीएम के साथ मिलकर सोचा कि अग़र यही तस्वीरें औरतों व महिलाओं की होती तो क्या...? ज़ाहिर है कि उन सबकी भी ऐसी ही तस्वीरें होती हैं जिन्हे लोग अपनी नंगी आंखों से देखते भी होंगे। तब सोचो, क्या हमारी बहू-बेटियों को शौच के लिए घर से बाहर जानी चाहिए?
आपने सोशल नेटवर्किंग टूल का अच्छा उपयोग करके अपने गांव की सबसे ज़रूरी समस्या को हमारे सामने रखा है सुड्डन। इसके लिए हम सब और पूरा गांव आपका आभारी है। आपने गांव में बदलाव लाया है।’
सुड्डन को अब भी कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि ये सब क्या हो रहा है। लेकिन जो भी हो रहा है उससे वो ख़ुश बहुत है और सबसे ज़्यादा ख़ुश तो वो इस बात को लेकर है कि उसके मन्तर की शंका का समाधान हो चुका है। वो अब समझ चुका है कि ये मन्तर तो फेसबुक नाम के इसी जन्तर(यन्त्र) का है, जिसे वो उपयोग में लेता है।
सभी बारी-बारी से सुड्डन को बधाईयां देने लगे। वो आज असीमित आनन्द में डूबा सबकी बधाइयां स्वीकार कर रहा है। लेकिन उसका चित मशालों की रोशनी में नहाए इस बइलहा तारा के आनन्द के साथ उसकी प्रगति का जश्न मना रहा है, जो एक जन्तर के मन्तर से सम्भव हो पाया है।
(इति।)