Saturday, 31 October 2015

आधी आबादी की पूरी आज़ादी...


शाम का वक़्त। तक़रीबन सात बज रहे हैं। चिरचित्त भाव से पूरे कम्पार्टमेण्ट में सन्नाटा है। लोग जिज्ञासाशून्य भाव से एक-दूसरे को देख रहे हैं और बार-बार बिखरे चिन्तन-पाश में ख़ुद को बांधने की कोशिश कर रहे हैं। साफ़ लफ़्ज़ों में हमें सुनाई पड़ रहा हैं- ‘अगला स्टेशन.. राजीव चौक, है। दरवाज़े दायीं ओर खुलेंगे।’
दरवाज़े दायीं ओर खुल गये। कुछ और लोग सहयात्रा के लिए उस कम्पार्टमण्ट के हिस्सेदार हो गए। वो सभी अन्दर आये और उनके ही साथ अन्दर आयी पूरी आज़ादी। जी हां, पूरी आज़ादी का बिम्ब बनी आधी आबादी का एक प्रतिनिधि मण्डल उस कम्पार्टमेण्ट में प्रवेश कर चुका था।
अगला स्टेशन कौन सा है, इसकी उद्घोषणा के स्वर कहीं किसी अनन्त में से विलुप्त हो चुके थे। लोगों की जिज्ञासाशून्यता रसपूर्ण हो गयी। सभी के चिन्तनविहीन मस्तिष्क में चिन्तन की क्रिया प्रारम्भ हो गयी। ये सब हमारी आधी आबादी की क्रियाशीलता के परिणाम स्वरूप सम्भव हो पाया था।
चार नवयुवतियों का एक समूह मेट्रो के इस कम्पार्टमेण्ट में है। ये मात्र चार युवतियां ही न थीं, बल्कि ये तो अपने अन्दर धर्म के प्रतीक चार स्तम्भों को समाहित किये थीं, इनका ये दल हमारे भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति का द्योतक है। इनकी आज़ादी और इनकी ही ग़ुलामी व अभिव्यक्ति के नियमन से ही हमें फौरन पता चल जाता है कि हमारे समाज में महिलाओं की वास्तविक स्थिति क्या है। उनका दशा क्या है। वह किस हाल में जी रही हैं। आज के समाज में वह कितनी आज़ाद हैं हमें इनकी ही अभिव्यक्ति से साफ़ पता चल जाता है।
इनमें से एक युवती को मैने दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कंवेन्शन में बोलते सुना था। विषय था- आधी आबादी और उनकी पूरी आज़ादी। ये युवती मुखर वक्ता थी। वो ख़ुद में किसी अदृश्य परतंत्रता से मुक्त होने की किसी ज़बरदस्त झुंझलाहट में  नज़र आती है जो कहीं और कभी नज़र भी न आ रही है और न ही कभी आयेगी, किन्तु यह स्वीकार्य है कि उनमें कोई परतांत्रिक पुट अवश्य है।
देखो न, पूरे कम्पार्टमेण्ट में सन्नाटा ही सन्नाटा बिसरा पड़ा है। न कोई कुछ चीं.. कर रहा हैं और कोई कुछ पूं...। लोग नज़रे भी मिलाने से एक-दूसरे से मोहताज हैं क्योंकि कम्पार्टमेण्ट में आज़ादी तैर रही है..। चारों एक-दूसरे को पूरी स्वच्छंदता से ज़ोर-ज़ोर गालियां बक रही हैं और खिलखिला उठ रही हैं। एक कहती है कि तू साली इतनी तो बहनचो# न थी बे। तो सभी ठहाके लेतीं। फिर दूसरी बोलती कि कुतिया फलां से ठो#वा के ही इतनी बहनचो# हो गयी है गाइज़। एक ठहाका और लगता।
सिलसिला यहीं न रुका। नीरस और मानसिक ग़ुलामी वाले लोगों के झुंड से भरे कंपार्टमेण्ट में ये हमारी नयी महिला ब्रिगेड जो हमारी भावी पीढ़ी और सभ्याता की नई इबारत लिख रही हैं एक-दूसरे के होठों का पाश बना रही हैं। कंपार्टमेण्ट में ही खड़े-खड़े पूरी आज़ादी से, जिसे देख बाकी ढीठ लोग मुंह फेर लिये, जिनके दिमाग़ में ग़ुलामी का जाला लगा था। मुझे हमारे देश की इस आधी आबादी की पूरी आज़ादी देखकर गौरव की अनुभूति होती रही है। वो आन्दोलन जो भारत में नारी-उत्थान के लिए पिछले समय से चल रहा था उससे जुड़े लोगों ने बड़ी जल्दी ही इस पर विजय पा ली है। मुझे इससे जुड़े लोगों पर अभिमान है। वास्तव में सुकून मिल रहा है कि हमारे समूचे देश की नारियां इतनी सशक्त हो गयीं हैं कि यूरोप भी पार न पाए। आधी आबादी की इस पूरी आज़ादी का यह प्रमाण आंकड़ेगत हमारे गौरव का प्रतीक है।

अगला स्टेशन आ चुका है। कम्पार्टमेम्ट में ग़ुलामी का अनुभव कर रहे कुछ संकुचित और रूढ़िवादी मानसिकता के लोग अब प्लेटफॉर्म पर थे जो कुछ भुनभुनाते से सीढ़ियों की ओर बढ़ रहे हैं...। 

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