Tuesday, 28 June 2016

मोदी के ओछे बोल...


अमित राजपूत

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के टाइम्स नाऊ में अर्नब गोस्वामी को दिये गये साक्षात्कार के बाद राजनैतिक गलियारों में हलचल थोड़ा बढ़ गयी है। उस साक्षात्कार में मोदी का बीजेपी के थिंक टैंक कहे जाने वाले सुब्रह्मण्यम स्वामी पर हमला कई लोगों के रास नहीं आया है।
मोदी के अर्नब को दिए गये साक्षात्कार में डॉ. स्वामी पर हमला किया गया, इसका कारण क्या था यह लगभग सभी को साफ-साफ पता है। वित्त मंत्री अरुण जेटली के ख़िलाफ जाकर भारत सरकार के मुख्य सलाहकार डॉ. अरविन्द सुब्रह्मण्यम पर सवाल उठाना शायद अरुण जेटली को पसन्द नहीं आया और कोई बात अरुण जेटली को पसन्द ना हो ये भला प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को कैसे रास आ सकती है। बस फिर क्या था अरुण जेटली ने लिख डाली एक रुचिकर पटकथा और टाइम्स नाऊ के मंच पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अर्नब गोस्वामी ने मिलकर ज़ोरदार अभिनय किया। इस अभिनय में मोदी की तारीफ़ें तो ही ही रही हैं लेकिन साथ में अर्नब कम तारीफ़ें नहीं बटोर रहे हैं। जनता अर्नब को अपने जॉनर से हटकर सौम्य अभिनय में देख चकित है।
पर शायद दोनो ही अभिनेताओं को ये नहीं मालूम है कि भारत में नाट्यशास्त्र का इतिहास बहुत पुराना है। ख़ासकर मोदी को। मोदी को इस बात का मद है कि वो ही सर्वश्रेष्ठ अभिनेता हैं। लेकिन ये जनता है साहेब... सब जानती है।
फिर भी मोदी इस हद तक चले जाएंगे यह मुझे चकित कर गया। उन्होने डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी पर यह आरोप लगाया है कि वह सस्ती लोकप्रियता के लिए लोगों में आरोप लगाए हैं और तो और उन्होने यह सलाह भी दे दी कि ऐसे लोकप्रिय होने के फितूर वाले लोगों को देश के ख़िलाफ़ जाकर बोलना ठीक नहीं है।
ऐसे में क्या मोदी जी ये साफ करेंगे कि क्या सरकार और उसके तंत्र के ख़िलाफ बोलना पाप है या इससे व्यक्ति देश विरोधी हो जाता है। तब तो वामपंथी ठीक ही कहते हैं कि मोदी देशप्रेम की अपनी परिभाषा गढ़ रहे हैं। मोदी को भ्रम है कि शायद उनसे पहले भारत में देश को प्रेम करने वाले पैदा ही नहीं हुए हैं। शायद आज भी उनसे बड़ा देशभक्त इस भारत भूमि में दूजा कोई नहीं है।
वास्तव में मोदी को अपने इस भ्रम से बाहर आ जाना चाहिए, क्योंकि वो जिस तरह से जोटली के पक्ष में जाकर नौटंकी (अभिनय की एक विधा) फैला रहे हैं उससे महत्वपूर्ण काज देश के लिए बाक़ी हैं। वो शायद इस बात से अनभिज्ञ हैं कि तुरन्त देश निर्माण में भूमिका निभाने वाले उच्च शिक्षा में संलग्न छात्र और शोधार्थियों का हाल क्या है, ऐसी संस्थाओं का हाल क्या है और उनको शायद इलाहाबाद विश्वविद्यालय में चल रही अनियमितताओं और वहां के वीसी प्रो. रतन लाल हंगलू की करतूतों का भी पता नहीं है।

मोदी जी जनता मासूम है इसका मतलब ये नहीं है कि वह बेवकूफ़ है। उसको तो महबूबा के द्वारा दिए गए सूर्य- अर्द्ध के एक लोटे जल की कीमत का भी अंदाज़ा है जो आपको चुकानी पड़ी है। फिलहाल आपने जो भी डॉ. स्वामी के बारे में बोला है वह निहायत ही ओछा और घटिया है। आप ये कह गए कि डॉ. स्वामी लोकप्रियता चाहते हैं, जो भी डॉ. स्वामी को जानते हैं वो हंसेगे आप पर महाराज। ख़ैर, डॉ. स्वामी से अभी भी आपको बहुत कुछ सीख लेने की ज़रूरत है। स्वार्थी मत बनिए और कृपया देशप्रेम पर अपना पेटेण्ट मत समझिए। विरोध कर पाने की ताक़त है तो स्वामी का नहीं उनके द्वारा कहे गए को हिला कर दिखाइए। बाक़ी स्वामी का अतीत और उनकी क्षमता आपको भी बेहत पता है, यदि चकाचौंध में विस्मृत भी हो गया हो तो बड़े अभी हैं आपके पास नतमस्तक होकर पूछ आइए। जनता ऐसा मानती है कि आप विनम्र हैं और शालीन हैं, उम्मीद है कि जनता का आप ख़्याल रखेंगे और डॉ. स्वामी के लिए कहे गए पर पश्चाताप करेंगें।

Thursday, 23 June 2016

सपनों का उल्लास...


स्वस्थ राष्ट्र हो हम सबका अपना
ये बिना बालिका दूर है सपना
दूर डगर है
बड़ा कठिन सफर है
ठहरो! ना घबराओ तुम
यूं ही ना झल्लाओ तुम
हममे है यूनर्जी
औ सपनो का उल्लास
स्वस्थ बालिका- स्वस्थ समाज।

अब तक 'धर्म' अधर्म समझकर
कैसे घुटती रहीं बेटियां
कुपोषण के वारों को
कैसे सहती रहीं बेटियां
सहन न होगा बहुत सह लिया
हम अलख जगाने आए हैं
इक क़दम बढ़ाने आए हैं
हममे है यूनर्जी
औ सपनो का उल्लास
स्वस्थ बालिका- स्वस्थ समाज।

अब तक जिनकी छांव रही
वो अम्मा-चाची-भउजी
थोप चपाती धर देती थीं
खूब रही मनमौजी
हालत उनकी देख कलेजा अब थर्राया
जन-गण-मन से पूछा उसने यही बताया
हममे है यूनर्जी
औ सपनो का उल्लास
स्वस्थ बालिका- स्वस्थ समाज।

थोड़ा तो मुस्काएं बेटियां
घर-आंगन महकाएं बेटियां
क़दमों से हर मिला क़दम
वो खुद अपना संसार बनाएं
पढ़ें बेटियां- बढ़ें बेटियां
अब तो ठाना लड़ें बेटियां
हममे है यूनर्जी
औ सपनो का उल्लास
स्वस्थ बालिका- स्वस्थ समाज।

देश धरोहर तुम हो बेटी
तुम हो जग की जननी
करनी हो तेरी या मेरी
पर तुझको ही है भरनी
डरी-डरी सी सहमी तू
बार-बार घबराई तू
फिर भी कर विश्वास
हममे है यूनर्जी
औ सपनो का उल्लास
स्वस्थ बालिका- स्वस्थ समाज।

हाहाकारों के कोलाहल में
चीत्कार उठीं जो बेटियां
अभिशाप बताकर धता हुईं जो
ग़ुम गयीं वो बेटियां
चीर के सीना इस धरती का
खोज रसातल जाएंगे
हममे है यूनर्जी
औ सपनो का उल्लास
स्वस्थ बालिका- स्वस्थ समाज।



Monday, 20 June 2016

विद्रूपित जेएनयू के बरक्स...





दशकों से अनेकों प्रतिभाओं को निखार कर उनको भारत सहित दुनिया के अनेक देशों में भेजकर उनकी सेवावृत्ति से गौरव का अनुभव करने वाला नई दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय पिछले दिनों अपने कैम्पस में हुई देश विरोधी नारेबाजी के चलते विद्रूपित हो गया। हालांकि यह सही है कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) को अपने कैम्पस में हुई इस गतिविधि का हिसाब देना पड़ेगा और लगभग वह दे भी रहा है। तथापि इसका मतलब यह कतई नहीं है कि जेएनयू ने अपना वजूद ही खो दिया है। संस्थागत रूप में और व्यवहार में भी जेएनयू के छात्रों में वो प्रतिभा और कुछ अलग करने का जुनून अभी भी वैसा ही है जिसके लिए जेएनयू विख्यात है। विद्रूपित जेएनयू के बरक्स उसकी वास्तविक चेतना उसके छात्रों में साफ और साकार रूप में देखी जा सकती है। इसके अनेक प्रसंग हैं। इनमें से एक प्रसंग का ज़िक्र मैं यहां कर रहा हूं।
जागरुकता रैली में शामिल इंदरपुरा गांव के बच्चे
जेएनयू के पर्यावरण विज्ञान संस्थान में शोधार्थी मुकेश राजपूत उत्तर प्रदेश के हमीरपुर ज़िले के एक छोटे से पिछड़े गांव इंदरपुरा के रहने वाले हैं। यह गांव ज़िला मुख्यालय से लगभग 80 किमी दूर है। इस गांव की हालत तमाम संसाधनों सहित स्वच्छता के मामले में भी बहुत पीछे है। मुकेश अपने संस्था से निकलकर अंत्योदय के लिए ग्रासरुट में जाकर काम करने की रुचि रखने वालों में से हैं। ये चाहते हैं कि भारत का हर ग्राम सशक्त हो और हर गांव का अपना गौरव हो, जो एक गांव को पूर्णतः गांव बनाने के बाद ही आ सकती है। लिहाजा इस तरह मुकेश ग्राम जीवन के हिमायती हो गए और उसके लिए प्रयास करने लगे।
सफ़ाई को जुटते गांव वाले
मुकेश बताते हैं कि वह महात्मा गांधी के ग्राम-स्वराज से अत्यधिक प्रभावित हैं और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से प्रेरणा लेकर स्वच्छ भारत अभियान के लिए देश को अपना योगदान देना चाहते हैं। इसकी शुरुआत उन्होने अपने ही गांव इंदरपुरा से की। मुकेश बताते हैं कि गांव के लोगों को इस दिशा में मोड़ना वाकई कठिन काम रहा है और सबसे अधिक चुनौती भरा रहा उनके विचारों को बदलना। आगे मुकेश प्रधानमंत्री की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि मेरे लिए भी लोगों को समझाना काफी चुनौती भरा था लेकिन अधिकतम लोग पहले से ही देश के प्रधानमंत्री से अत्यधिक प्रभावित हैं तो मुझे अपने काम में सफलता मिल सकी और आज गांव के लगभग नब्बे फीसदी लोग इस मुहिम में हमारे साथ है।
जेएनयू का यह छात्र यथा समय निकालकर तुरन्त इन्दरपुरा पहुंचता है और गांव वालों को जागरुक करने लिए अनेक प्रयास करते हुए उन्हें पर्यावरण के स्वस्थ्य की जानकारी देकर शिक्षित कर रहा है। मुकेश का उद्देश्य अपने गांव से पलायन को रोकना भी है। इसके लिए वह गांव में गोष्ठियां और तमाम सेमिनार भी आयोजित करते हैं और दिलचस्प यह है कि इन सब में वह अपने शोध से मिलने वाले मानदेय को खर्च करते हैं। सप्ताह में एक मीटिंग स्थायी है जो ग्राम प्रधान के समन्वय से होती है, जिसमें सभी को सम्मिलित होना होता है, यथा पंचायत मित्र, पंचायत सचिव, लेखपाल, बैंक मित्र, सभी वार्ड मेम्बर्स व कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं से जुड़े लोग आदि।
इंदरपुरा जाकर देखने पर हमें साफ़ पता चला है कि इस गांव में जहां पहले सड़कों से निकलना दूभर था, उन सड़कों पर कचरे और कीचड़ के अंबार का अतिक्रमण इस कदर लबालब था कि सड़कें दिखाई तक नहीं देती थीं। लेकिन जेएनयू के इस छात्र के प्रयास के बाद इस गांव का कायापलट ही हो गया है और अब यह गांव एक निर्मल ग्राम की तस्वीर ले रहा है। मुकेश के मनुहार से इस काम में गांव के कुछ दिव्यांग जन भी बढ़-चढ़ अपना सहयोग दे रहे हैं। दिव्यांग धर्मेन्द्र उनमें से प्रमुख और बधाई के पात्र हैं। धर्मेन्द्र बताते हैं कि वह स्वच्छ भारत मिशनसे प्रेरित होकर इसमें अपना सहयोग दे रहे हैं।
गलियों की सफ़ाई करते ग्राम प्रधान राजकुमार राजपूत
इसके अलावा मुकेश राजपूत गांव की शिक्षा पर भी बहुत ज़ोर दे रहे हैं। इसके लिए उन्होने गांव में अनेक स्थानों पर अख़बार का बंदोबस्त किया है और एक छोटे से वाचनालय के निर्माण के लिए प्रयासरत हैं। इसके साथ ही गांव के प्राथमिक विद्यालयों में गुणवत्तापरक शिक्षा व्यवस्था न होने की पुष्टि के बाद इन्होने ग्राम प्रधान राजकुमार के सहयोग से सरकार को सूचित कर उनसे आदेश लेकर ग्राम सहायता से संविदा पर कुशल अध्यापकों की व्यवस्था करने की योजना बना रहे हैं।

मुकेश राजपूत
अब तक के प्रयासों से हमें ये पता चला है कि भारत के गांवों में जागरुकता की भारी कमी है। ग्राम पंचायतों में जागरुकता की कमी के मद्देनज़र हम सरकारों की सभी योजनाओं की जानकारियां गांव के अन्तिम व्यक्ति तक पहुंचाने के पक्षधर हैं और निःस्वार्थ रूप से उसके लिए हमसे जितना प्रयास हो रहा है हम कर रहे हैं और मुझे ख़ुशी इस बात कि है कि गांव के लोग मेरी बातों को समझ पा रहे हैं और सूचनाओं के प्रति उनमें स्वयं जिज्ञासाएं भी हैं। शायद यही कारण है कि मैं जेएनयू कैम्पस के बाहर निकल कर लोगों के बीच अपना समय दे पा रहा हूं।

गांव को निर्मल बनाने में जुटे ग्रामवासी
जेएनयू प्रकरण के सवाल पर मुकेश ज़ोर देकर कहते हैं कि जेएनयू किसी की थाती नहीं हैं। वहां यदि कुछ अराजक तत्व हैं तो इसका ये कतई मतलब नहीं है कि देश के प्रति सकारात्मक विचार रखने वाले लोगों की वहां कमी है। जेएनयू प्रबुद्धों का केन्द्र है और वहां अच्छे काम करने वालों की कमी नहीं हैं। मैने अपने कैम्पस से ही सीखकर इंदरपुरा में काम करने का बीड़ा उठाया। इसके लिए पहले मैनें गुजरात और महाराष्ट्र के कुछ गांवों का दौरा भी किया जो इस तरह का काम कर रहे हैं। फिर मैने अपने ही गांव से इस तरह के काम को करने की सोची, फिर मैने इस दिशा में क़दम बढ़ाया और गांव के पंचायत सचिव राधेश्याम, प्रधान राजकुमार, बैंक मित्र अरुण, पंचायत मित्र प्रमोद, खेमचंद्र अहिरवार, चन्द्रपाल लोधी, अमर सिंह ओमरे, नत्थू, राजेन्द्र पासवान और मंगल पासवान जैसे लोगों का सहयोग मिला और मेरा कारवां चल पड़ा।
इस तरह से हमें यह साफ समझना होगा कि विद्रूपित जेएनयू के बरक्स उसका एक सकारात्मक स्वरूप भी है, जिसका हमें ध्यान रखना होगा और ऐसी संस्थाओं का हमें अपने देश के विकास में पूरा सहयोग लेना होगा क्योंकि आवश्यक नहीं कि हर जेएनयू कन्हैयाओं से ही भरा पड़ा है, वहां सैकड़ों मुकेश भी हैं।



Wednesday, 15 June 2016

अधरों के स्वर...



भोर बस झड़ी ही है..
किन्तु
तुम्हारे प्रेमातुर दिनमान की साँझ
अभी बची है
रेशम सी
सुबह की पहली किरण के साथ
पीत पुष्प
तुम्हारे प्रेम के हर्ष में खिल उठे हैं
कलापी गान गा रहे हैं
मर्गों की चंचलता जितना चंचल
तुम्हारा मन
अब स्थिर है
इन्हीं चट्टानों के बीच
मात्र तुम
और तुम्हारा प्रेमी
मैं
कहीं नेपथ्य में
हूँ भी
और नहीं भी।
ऊपर आकाश में गरजते विमान
जो संकेत हैं
तुम्हारे समर्पण की उड़ान का
तुम उड़ी बन प्रेयसी
जा पहुंची
उसके हरम में
मिलता तुम्हें
विश्राम
ये वृक्ष और झाड़ियाँ
मुस्कुराकर बता गये
मुझे
तुम्हारा प्रेम में इस तरह डूबना
जैसे रुक गया हो सब कुछ
शान्त सा
निर्वेद सा
मालूम हुआ
मानों ये प्रकृति
ये गति
बस तुमसे हैं
तुम्हारे प्रेम से ।
पर ये क्या !
निढाल सी पड़ी तुम
उसकी गोद में
स्वयं को ढूँढ़ने लगी
मैं चकित
तुम कौन ?
जिसने रोका था
पुरुष को
एक क्षण के लिए
ब्रह्म को
स्पर्श के लिए
वो ऊर्जा कैसी थी ?
खींच लाओ
काली से
भोर वैसी ही
कर दो
क्षण जो अभी पहले थे
तुम्हारी केलिक्रीड़ा से
कुछ पग दूर
नेपथ्य में
मैंने अपने अधरों से बाँसुरी लगायी
उसको बजायी
सुनी तुमने
तुम्हारे प्रेमी ने
तुम्हें उठाया
और अपने अधरों से छुआ
तुम्हारे प्रेम पल्लवों को
तुम मोरनी सी सिहरी
आदर से
बनाया होठों का पाश
पुनः
प्रकृति
खिल रही है
चेतना
ऊर्ध्वगामी हो रही है
सत्य को
पता करो
ये अधरों से फूंके गए
स्वरों का रहस्य क्या है ?

Tuesday, 14 June 2016

आदिवासी हूं...



आदिवासी हूं
समाजों की सभ्यता से
दूर
सारे मिथकों से
दस्तूरों की चकाचौंध से
मुक्त
उन्मुक्त
झोंझ हूं
मर्रा का
कुण्ड हूं
असभ्य मैं
जंगल का वासी हूं
आदिवासी हूं।
अभद्र हूं गलीच
मैं
मय की प्यासी हूं
हुंकार में
गरल हूं
सरल हूं
शोषण में
भद्दी चीत्कार हूं
जटिल हूं
कुटिल हूं
विस्तार में अनन्त हूं
मसत्स्य हूं
घमण्ड में
प्रकृति की दासी हूं
आदिवासी हूं।
अधर्म हूं
कुकर्म हूं
पाप का प्रलाप हूं
संताप हूं
न राम हूं
न रमजान हूं
अछूत हूं सुमार्ग का
कुमार्ग हूं
व्यथित हूं
पतित हूं
बोझ हूं धरा का
घुटन भरी फांसी हूं
आदिवासी हूं।
निरक्षर हूं
मैं पात्र हूं
इतिहास का
विकास का
अरि हूं
एकात्म का
दर्शन कहां मुझमें
स्व का ढाल हूं
रंगों में लाल हूं
साहित्य हूं
सृजन हूं
शब्द हूं
निःशब्द फंतासी हूं
आदिवासी हूं।
हब्सी हूं
कर्म में
उत्तेजना हूं
तेज की
प्यासी हूं
बाधक हूं
भय की कहानी हूं
हानि हूं
किसकी जंजाल लूं
अग्नि हूं
प्रचंड मैं
बवाल हूं
बोझ हूं
रोड़ा हूं
राष्ट्र की उदासी हूं
आदिवासी हूं।

Wednesday, 8 June 2016

दुश्वारियों में यह जो मीडिया है...


पुस्तक समीक्षा

“जितनी तेज़ी से मीडिया के विविध आयाम विस्तार ले रहे हैं, उतनी ही तेज़ी से उस पर से विश्वास हटने की बात भी सामने आ रही है। ‘कॉरपोरेटिव मीडिया’ नाम की नई खेप हमारे संग है तो ‘ख़बरों’ को ग़ायब करके ‘बहस दर बहस’ करते जाने का मुद्दा भी ज़ोरदार ढंग से उठाया जा रहा है। ‘मीडिया ट्रायल’ पर वाद-प्रतिवाद चल रहा है तो ‘पेड न्यूज़’ और ‘पेड व्यूज़’ के मुद्दे भी मीडिया को परेशान कर रहे हैं। आतंकवाद, नक्सलवाद, मार्केट बदलती लाईफ़ स्टाईल, आस्था के बढ़ते जन-समुद्र गलबहियां करते सत्ताधारी और भ्रष्टाचारी, जनान्दोलन जैसे कई सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक सरोकार हैं, जिनसे जूझे बिना मीडिया का काम नहीं चल सकता। एक सच यह भी है कि हमारा समय ‘ब्राण्डिंग’ का समय है। सत्ता और कॉरपोरेट के चाल-चलन के साथ सुर में सुर मिलाते मीडिया का एक बड़ा हिस्सा जिस मीडिया एथिक्स को गढ़ रहा है, उसे बाज़ार की चकाचौंध में मुनाफ़ा कमाने का एथिक्स कहा जाए तो ग़लत नहीं होगा। कुछ वर्षों पहले कुछ पत्रकारों ने मीडिया-मनी-मसल के गठजोड़ पर आपत्ति जताई थी, तब मीडिया के तथाकथित नए अलम्बरदारों ने मीडिया के विस्तार के लिए पूंजी और मुनाफ़े की ज़रूरत की बात करके इस आपत्ति को दर-किनार कर दिया था। हाल ही में ‘पेड न्यूज़’ बहस शुरू हुई। पहले लुक-छिप कर होने वाला यह धंधा अब खुल्लमखुल्ला कई मीडिया घरानों की नीति में शामिल हो गया है तो इसके पक्ष में लॉबिंग करने वाले भी सामने  गए हैं। ‘लॉबिस्ट’ का तमगा तो कुछ ‘इलीट’ कहे जाने वाले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कर्मियों पर भी लगाया जा रहा है। बहरहाल इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जब से सत्ता, कॉरपोरेट और मीडिया की तिकड़ी ने मिलकर काम करना शुरू किया है, तभी से ‘मीडिया तमाशों’ की बाढ़ आ गई है। ऐसे में ज़रूरी हो गया है कि बदलते समय के मीडिया सरोकारों पर बात की जाये।” धनञ्जय चोपड़ा की ‘यह जो मीडिया है’ इसी की शुरुआत में एक प्रभावी पाषाण है जिससे उठती चिंगारी दूर.. बहुत दूर तलक चमकेगी, बाहर भी और भीतर भी।
धनञ्जय चोपड़ा के लगभग 25 वर्षों से भी अधिक सक्रिय पत्रकारिता करने के बाद 112 पेज़ों के भीतर छोटे-बड़े 21 प्रभावी स्तम्भों में निबद्ध यह क़िताब समसामयिक सरोकारों की इतनी रोचकता और जीवंतता समेटे हुये है कि पढ़ते समय पता ही नहीं चलता है कि आप पत्रकारिता जैसे गम्भीर विषय पर कोई क़िताब पढ़ रहे हैं। ‘यह जो मीडिया है’ वास्तव में इतनी रोचक शैली में लिखी गई क़िताब है कि इसे आपने पढ़ना शुरू किया तो फिर हर स्तम्भ को स्पर्श करने का मन करता है। अब इसे आप धनञ्जय चोपड़ा का अन्दाज़-ए-बयां भी कह सकते हैं। फिलहाल वो अपने इन्हीं कारनामों की वजह से विख्यात भी हैं।
धनञ्जय चोपड़ा का ‘बरगद’ का दौर रहा हो या फिर जब उन्होने पंडवानी गायिका तीजन बाई का मोनोग्राफ तैयार किया तब का समय रहा हो, हर समय हर पहलू में धनञ्जय चोपड़ा खरे उतरे हैं और सभी में उनका प्रतिनिधि चुटीलापन बड़ी साफगोई से झलका है जो इस पुस्तक ‘यह जो मीडिया है’ में भी क़दम दर क़दम आपको मिलता है। इसमें मीडिया में फैली भंड़चाचर को जब धनञ्जय चोपड़ा अपने अन्दाज़ में कहना शुरू करते हैं तो यह जिस स्वरूप में पाठकों को मिलता है वह मीडिया के प्रति बड़ा ही लालायित करने वाला है। अपनी बातों का संचार इतने रोचक ढंग से करने के लिए ही भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने उन्हें भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पुरस्कार और उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने बाबूराव विष्णुराव पराड़कर पत्रकारिता पुरस्कार से उन्हे अलंकृत किया है।

“तभी परदे पर एक दृश्य उभरा... अभिनेत्री हाथ में गिलास लिए अभिनेता से कहती है- पिओ और पिओ...(शायद शराब)। मैं ज़ोर से चिल्ला पड़ा- ‘न पी बै’।”  इससे जाहिर होता है कि अपनी इस क़िताब में भी उन्होनें अपने पाठकों के लिए बीच-बीच इलाहाबादी ठसक के साथ व्यंग्यात्मक, आत्म-कथात्मक और शोधात्मक शैली का जो अटूट संगम प्रस्तुत किया है वह श्रेयष्कर है।  
हालांकि क़िताब की विषय-वस्तु का कलेवर कुछ संस्थागत सा भी है। पत्रकारिता के विद्यार्थियों और पेशेवरों के लिए धनञ्जय चोपड़ा की यह क़िताब जितनी वैज्ञानिक है उतनी ही कलात्मक। इसमें मीडिया के स्थापित सिद्धान्तों के बूते नियमों की बात की गई है तो वहीं व्यवहारिकता की कसौटी पर नये आयामों को गढ़ रही है यह क़िताब। ‘यह जो मीडिया है’ में उन्होनें पत्रकारिता की तमाम दुश्वारियों, चाहे वो मीडिया के भीतर पनपी सड़ंध से हो या फिर विषयागत तमाम उलझनों और पेचीदगियों से हो दोनों ही मामलों में उन्होंने बड़े सलीके से उनकी परतों को उकेरा है और इस क़िताब के समर्पण में भी उन्होनें यही लिखा है कि “अपने उन सभी विद्यार्थियों को समर्पित, जो तमाम दुश्वारियों के बावजूद भी मीडिया में अपनी भूमिकाएं बखूबी निभा रहे हैं....।” बावजूद इसके दिक्कत यह है कि ठीक ढंग से यह सुनिश्चित नहीं हो पा रहा है कि यह क़िताब पूरी तरह से पाठ्यक्रम के लिए है या पाठ्क्रम से इतर। फिलहाल इससे लाभांवित संस्थागत छात्र भी होंगे और पेशेवर भी।
‘यह जो मीडिया है’ मीडिया, साहित्य और भाषा की पारस्परिक रिश्तेदारी और युद्ध, शान्ति और मीडिया की पारस्परिक नातेदारी को बयां करती है। नक्सलवाद, सरकार और समाचार मीडिया की लगभग हर परत को स्पर्श करते हुये धनञ्जय चोपड़ा ने नक्सलवाद के साथ साइबर आतंक और सोशल मीडिया की भूमिका के व्यूह को समझाने का प्रयास किया है। कुल मिलाकर मीडिया की दुश्वारियों की दरिया में डूबकर बहते हुए भद्रों के लिए ‘यह जो मीडिया है’ एक सटीक बांध है जिसको टटोलकर ऊपर उठने का प्रयास किया जा सकता है। अतः इस ‘सटीक बांध’ का स्पर्श एक दफ़ा तो सभी को कर ही लेना चाहिए।
पुस्तकः यह जो मीडिया है
लेखकः धनञ्जय चोपड़ा
प्रकाशकः साहित्य भण्डार
50, चाहचन्द, इलाहाबाद-211003

मूल्यः 50 रुपये मात्र/-