Wednesday, 15 June 2016

अधरों के स्वर...



भोर बस झड़ी ही है..
किन्तु
तुम्हारे प्रेमातुर दिनमान की साँझ
अभी बची है
रेशम सी
सुबह की पहली किरण के साथ
पीत पुष्प
तुम्हारे प्रेम के हर्ष में खिल उठे हैं
कलापी गान गा रहे हैं
मर्गों की चंचलता जितना चंचल
तुम्हारा मन
अब स्थिर है
इन्हीं चट्टानों के बीच
मात्र तुम
और तुम्हारा प्रेमी
मैं
कहीं नेपथ्य में
हूँ भी
और नहीं भी।
ऊपर आकाश में गरजते विमान
जो संकेत हैं
तुम्हारे समर्पण की उड़ान का
तुम उड़ी बन प्रेयसी
जा पहुंची
उसके हरम में
मिलता तुम्हें
विश्राम
ये वृक्ष और झाड़ियाँ
मुस्कुराकर बता गये
मुझे
तुम्हारा प्रेम में इस तरह डूबना
जैसे रुक गया हो सब कुछ
शान्त सा
निर्वेद सा
मालूम हुआ
मानों ये प्रकृति
ये गति
बस तुमसे हैं
तुम्हारे प्रेम से ।
पर ये क्या !
निढाल सी पड़ी तुम
उसकी गोद में
स्वयं को ढूँढ़ने लगी
मैं चकित
तुम कौन ?
जिसने रोका था
पुरुष को
एक क्षण के लिए
ब्रह्म को
स्पर्श के लिए
वो ऊर्जा कैसी थी ?
खींच लाओ
काली से
भोर वैसी ही
कर दो
क्षण जो अभी पहले थे
तुम्हारी केलिक्रीड़ा से
कुछ पग दूर
नेपथ्य में
मैंने अपने अधरों से बाँसुरी लगायी
उसको बजायी
सुनी तुमने
तुम्हारे प्रेमी ने
तुम्हें उठाया
और अपने अधरों से छुआ
तुम्हारे प्रेम पल्लवों को
तुम मोरनी सी सिहरी
आदर से
बनाया होठों का पाश
पुनः
प्रकृति
खिल रही है
चेतना
ऊर्ध्वगामी हो रही है
सत्य को
पता करो
ये अधरों से फूंके गए
स्वरों का रहस्य क्या है ?

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