पुस्तक समीक्षा
“जितनी तेज़ी से मीडिया के विविध आयाम विस्तार
ले रहे हैं, उतनी ही तेज़ी से उस पर से विश्वास हटने की बात भी सामने आ रही है। ‘कॉरपोरेटिव
मीडिया’ नाम की नई खेप हमारे संग है तो ‘ख़बरों’ को ग़ायब करके ‘बहस दर बहस’ करते
जाने का मुद्दा भी ज़ोरदार ढंग से उठाया जा रहा है। ‘मीडिया ट्रायल’ पर
वाद-प्रतिवाद चल रहा है तो ‘पेड न्यूज़’ और ‘पेड व्यूज़’ के मुद्दे भी मीडिया को
परेशान कर रहे हैं। आतंकवाद, नक्सलवाद, मार्केट बदलती लाईफ़ स्टाईल, आस्था के बढ़ते
जन-समुद्र गलबहियां करते सत्ताधारी और भ्रष्टाचारी, जनान्दोलन जैसे कई
सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक सरोकार हैं, जिनसे जूझे बिना मीडिया का काम नहीं चल
सकता। एक सच यह भी है कि हमारा समय ‘ब्राण्डिंग’ का समय है। सत्ता और कॉरपोरेट के
चाल-चलन के साथ सुर में सुर मिलाते मीडिया का एक बड़ा हिस्सा जिस मीडिया एथिक्स को
गढ़ रहा है, उसे बाज़ार की चकाचौंध में मुनाफ़ा कमाने का एथिक्स कहा जाए तो ग़लत
नहीं होगा। कुछ वर्षों पहले कुछ पत्रकारों ने मीडिया-मनी-मसल के गठजोड़ पर आपत्ति
जताई थी, तब मीडिया के तथाकथित नए अलम्बरदारों ने मीडिया के विस्तार के लिए पूंजी
और मुनाफ़े की ज़रूरत की बात करके इस आपत्ति को दर-किनार कर दिया था। हाल ही में ‘पेड
न्यूज़’ बहस शुरू हुई। पहले लुक-छिप कर होने वाला यह धंधा अब खुल्लमखुल्ला कई
मीडिया घरानों की नीति में शामिल हो गया है तो इसके पक्ष में लॉबिंग करने वाले भी
सामने गए हैं। ‘लॉबिस्ट’ का तमगा तो कुछ ‘इलीट’
कहे जाने वाले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कर्मियों पर भी लगाया जा रहा है। बहरहाल इस बात
से इंकार नहीं किया जा सकता कि जब से सत्ता, कॉरपोरेट और मीडिया की तिकड़ी ने
मिलकर काम करना शुरू किया है, तभी से ‘मीडिया तमाशों’ की बाढ़ आ गई है। ऐसे में
ज़रूरी हो गया है कि बदलते समय के मीडिया सरोकारों पर बात की जाये।” धनञ्जय चोपड़ा
की ‘यह जो मीडिया है’ इसी की शुरुआत में एक प्रभावी पाषाण है जिससे उठती चिंगारी दूर..
बहुत दूर तलक चमकेगी, बाहर भी और भीतर भी।
धनञ्जय चोपड़ा के लगभग 25 वर्षों से भी अधिक
सक्रिय पत्रकारिता करने के बाद 112 पेज़ों के भीतर छोटे-बड़े 21 प्रभावी स्तम्भों
में निबद्ध यह क़िताब समसामयिक सरोकारों की इतनी रोचकता और जीवंतता समेटे हुये है
कि पढ़ते समय पता ही नहीं चलता है कि आप पत्रकारिता जैसे गम्भीर विषय पर कोई
क़िताब पढ़ रहे हैं। ‘यह जो मीडिया है’ वास्तव में इतनी रोचक शैली में लिखी गई
क़िताब है कि इसे आपने पढ़ना शुरू किया तो फिर हर स्तम्भ को स्पर्श करने का मन
करता है। अब इसे आप धनञ्जय चोपड़ा का अन्दाज़-ए-बयां भी कह सकते हैं। फिलहाल वो
अपने इन्हीं कारनामों की वजह से विख्यात भी हैं।
धनञ्जय चोपड़ा का ‘बरगद’
का दौर रहा हो या फिर जब उन्होने पंडवानी गायिका तीजन बाई का मोनोग्राफ तैयार किया
तब का समय रहा हो, हर समय हर पहलू में धनञ्जय चोपड़ा खरे उतरे हैं और सभी में उनका
प्रतिनिधि चुटीलापन बड़ी साफगोई से झलका है जो इस पुस्तक ‘यह जो मीडिया है’ में भी
क़दम दर क़दम आपको मिलता है। इसमें मीडिया में फैली भंड़चाचर को जब धनञ्जय चोपड़ा
अपने अन्दाज़ में कहना शुरू करते हैं तो यह जिस स्वरूप में पाठकों को मिलता है वह मीडिया
के प्रति बड़ा ही लालायित करने वाला है। अपनी बातों का संचार इतने रोचक ढंग से
करने के लिए ही भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने उन्हें भारतेन्दु
हरिश्चन्द्र पुरस्कार और उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने बाबूराव विष्णुराव
पराड़कर पत्रकारिता पुरस्कार से उन्हे अलंकृत किया है।
“तभी परदे पर एक दृश्य उभरा... अभिनेत्री हाथ में गिलास लिए अभिनेता से कहती है- पिओ और पिओ...(शायद शराब)। मैं ज़ोर से चिल्ला पड़ा- ‘न पी बै’।” इससे जाहिर होता है कि अपनी इस क़िताब में भी उन्होनें अपने पाठकों के लिए बीच-बीच इलाहाबादी ठसक के साथ व्यंग्यात्मक, आत्म-कथात्मक और शोधात्मक शैली का जो अटूट संगम प्रस्तुत किया है वह श्रेयष्कर है।
“तभी परदे पर एक दृश्य उभरा... अभिनेत्री हाथ में गिलास लिए अभिनेता से कहती है- पिओ और पिओ...(शायद शराब)। मैं ज़ोर से चिल्ला पड़ा- ‘न पी बै’।” इससे जाहिर होता है कि अपनी इस क़िताब में भी उन्होनें अपने पाठकों के लिए बीच-बीच इलाहाबादी ठसक के साथ व्यंग्यात्मक, आत्म-कथात्मक और शोधात्मक शैली का जो अटूट संगम प्रस्तुत किया है वह श्रेयष्कर है।
हालांकि क़िताब की विषय-वस्तु का कलेवर कुछ
संस्थागत सा भी है। पत्रकारिता के विद्यार्थियों और पेशेवरों के लिए धनञ्जय चोपड़ा
की यह क़िताब जितनी वैज्ञानिक है उतनी ही कलात्मक। इसमें मीडिया के स्थापित
सिद्धान्तों के बूते नियमों की बात की गई है तो वहीं व्यवहारिकता की कसौटी पर नये
आयामों को गढ़ रही है यह क़िताब। ‘यह जो मीडिया है’ में उन्होनें पत्रकारिता की
तमाम दुश्वारियों, चाहे वो मीडिया के भीतर पनपी सड़ंध से हो या फिर विषयागत तमाम
उलझनों और पेचीदगियों से हो दोनों ही मामलों में उन्होंने बड़े सलीके से उनकी
परतों को उकेरा है और इस क़िताब के समर्पण में भी उन्होनें यही लिखा है कि “अपने
उन सभी विद्यार्थियों को समर्पित, जो तमाम दुश्वारियों के बावजूद भी मीडिया में
अपनी भूमिकाएं बखूबी निभा रहे हैं....।” बावजूद इसके दिक्कत यह है कि ठीक ढंग से
यह सुनिश्चित नहीं हो पा रहा है कि यह क़िताब पूरी तरह से पाठ्यक्रम के लिए है या
पाठ्क्रम से इतर। फिलहाल इससे लाभांवित संस्थागत छात्र भी होंगे और पेशेवर भी।
‘यह जो मीडिया है’ मीडिया, साहित्य और भाषा की
पारस्परिक रिश्तेदारी और युद्ध, शान्ति और मीडिया की पारस्परिक नातेदारी को बयां
करती है। नक्सलवाद, सरकार और समाचार मीडिया की लगभग हर परत को स्पर्श करते हुये धनञ्जय
चोपड़ा ने नक्सलवाद के साथ साइबर आतंक और सोशल मीडिया की भूमिका के व्यूह को
समझाने का प्रयास किया है। कुल मिलाकर मीडिया की दुश्वारियों की दरिया में डूबकर
बहते हुए भद्रों के लिए ‘यह जो मीडिया है’ एक सटीक बांध है जिसको टटोलकर ऊपर उठने
का प्रयास किया जा सकता है। अतः इस ‘सटीक बांध’ का स्पर्श एक दफ़ा तो सभी को कर ही
लेना चाहिए।
पुस्तकः यह जो मीडिया है
लेखकः धनञ्जय चोपड़ा
प्रकाशकः साहित्य भण्डार
50, चाहचन्द, इलाहाबाद-211003
मूल्यः 50 रुपये मात्र/-
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