सिलवटें
सेज की
बताती
हैं
तड़प
उलझने
कितनी थीं
कितनी
थी गहराई
सुखान्त
की
कल्पना
में
जोर
कितना
दर्द
कितना
कितना
भाव था डूब जाने का
एक-दूसरे
के मांस से मिलता मांस
और
ख़ून से मिलता ख़ून
जिनसे
होती रक्त-रंजित
सिलवटें
सेज की
बताती
हैं
एहसास
उनके
साये में मिलें
दो
जज़्बात
जिनके
एक होने से हुआ
सहवास
उनसे
पड़ीं
सिलवटें
सेज की
उन
सिलवटों से साफ-साफ
झांकती
दरारें
रिश्तों
की
यौनांगों
की
जिनकी
पहले ही माप ले चुकीं
ये
कुण्ठाएं
ये
प्रतिशोध
ये
हवस
जो
कहीं इश्क तो कहीं रश्क का
लबादा
ओढ़े
जूझ
पड़ी हैं
और
उन्हीं से पड़ी हैं
ये
सिलवटें
सेज की।
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