आज
का समाज अपनी संस्कृति और सभ्यता से दो-दो हाथ करने से नहीं चूक रहा है।
जाने
ये स्वच्छन्दताका कैसा परास चाहते हैं, जो इन्हें ‘किस ऑफ लव’ सरीखे
आयोजनों
की चाह पैदा करने पर मज़बूर कर रहा है।
ऐसा नहीं है कि मेरे
देश में चूमने की प्रथा नही रही है। अभी मैं दिवाली की छुट्टियों से वापस आया तो
मेरी माँ ने मुझे चूमा था। गाड़ी में बिठाने आये तो मेरे मित्र ने मुझे चूमा था। बचपन मे भी मैने दो बहनों को
चूमते हुए देखा है, दो भाइयों को चूमते हुए देखा है, भाई-बहन को आपस में चूमते हुए
देखा है और हर प्रिय को किसी अच्छे काम पर जाने और वहां से वापस आने पर चूमते देखा
है,और आज भी देख रहा हूँ। तो फिर आज चुंबन के पैरोकार चुंबन की क्रिया को कैसा
जामा पहनाकर अनिष्टता की कौन सी चोटी पर ले जाकर स्वछन्दता की अवहेलना से उसे सभ्य
और प्रगतिशील समाज रूपी वादियों में बिखेर देना चाहते हैं।
ये कौन सा चुंबन एक-दूसरे को करना चाहते हैं जिसे
भारतीय संस्कृति और उसके कारसेवक उन्हे ऐसा करने से रोकते हैं। और रोके जाने पर ये
आज़ादी का हवाला देकर बिलबिलाने लगते हैं। मेरे अब तक के संज्ञान में मेरी
संस्कृति और तहज़ीब ने किसी को चूमने से नहीं रोका। यहाँ तो कईयों ने अपने होठों
से जाने कितनों के चरण चूमें हैं, तब भी भारतीय संस्कृति ने उसे बजाय विरोध के अपनाया
है। तब मामूली से चुंबन के लिए ये संस्कृति कैसे इसका विरोध कर सकती है...?चिन्तनीय
बात है। वास्तव में इन चुम्बन उत्कंठित नर-नारियों से जाकर पूछो कि कब इन्हें इनकी
माताओं को चूमने नहीं दिया गया, कब इनके भाईयों और बहनों ने इन्हे चूमना चाहा तो
भारत के किसी राष्ट्रप्रेमी या संस्कृति के पैरोकार ने इन्हें पकड़ा या इन पर रोक
लगायी। या फिर कब-कब ये अपने मित्रों को नहीं चूम सके, बताओ मुझे।
पर शायद माजरा कुछ और
ही है, जिसके कारण तहज़ीब के नबियों को इसका विरोध करना पड़ रहा है।ये मात्र
गंवारों और आवारागर्द मूढ़ों की जमात का कारनामा बस नही है, बल्कि इस बात को नकारा
नही जा सकता है कि इसके पीछे एक बड़ी साज़िश है। हमने अपने पूर्वजों और महापुरूषों
से सीखा है कि किसी की संस्कृति और सभ्यत को नष्ट करके उसे सम्पूर्ण जीता जा सकता
है, इसके उदाहरण केलिए भारतीय इतिहास भरा पड़ा है। आज जब हिन्दुस्तान तेजी से बदल
रहा है तो इसकी महान हिंदुत्व संस्कृति जिसे तमाम विभिन्न धर्मावलंबी शासकों ने
अपने रहन-सहन में अपनाया था, को एक बार फिर हमले का शिकार होना पड़ रहा है। इसलिए
सभी को ज़रूरत है एक साथ चौकन्ना रहने की, एक साथ जागने की। साथ ही साथ उन स्निग्ध
और नौसिखिया चुंबनकर्मियों को भी पहले बगैर बौखलाए समाज से चुंबन का सलीका और आयाम
सीखने की जरूरत है, अन्यथा ये कब अपने होठो को नापाक कर बैठेंगे... ख़ुदा जाने।
हास्यास्पद लगा मुझे
देश के प्रभावी विश्वविद्यालय जेएनयू के गंगा ढाबा के पास ‘प्यार का चुंबन’ यानी ‘किस
ऑफ लव’ के समर्थन में आयोजन करना।
जाने कौन सी जरूरत और बाधा अचानक से आ पड़ी इन पढ़े-लिखे
विद्यार्थियों को कि औपचारिक मंच के माध्यम से इन्हे ’किस’करने की सूझी, और उसे ये
प्यार का चुंबन संबोधित करतें है। जहां तक मैं देखता हूं, गांवो में आज भी जब कोई मां
अपनी बेटी कोविदा करने या कोई बापअपने बेटे को परदेश जाने के लिएगांव के किनारे तक
छोड़ने आतें हैं तो चूमते हैं उन्हें। वास्तव में यही प्यार का चुंबन है और इसके लिये
शायद हिन्दुस्तान के किसी संगठन ने कोई आपत्ति नहीं जताई है। जेएनयू के येउत्कंठित युवा किस प्यार के चुंबन
की बात कर गये, मैं न जान सका। उस समारोह
में कुछ युवक-युवतियां उलाहना भी कर रहे थे, जिनसे मैंने बात की तो उनके अनुसार वो
बस यूं ही झुंड में शामिल हैं। अब इससे ज़्यादा शर्म की बात और क्याहो सकती है कि
इनके ग़ैर-ज़िम्मेदाराना उलाहना से समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा। यदि ऐसा ही चलता रहा
तो एक दिन ऐसा भी आयेगा जब ये इसी तरह का औपचारिक मंच सजाकर ‘प्यार का समागम’महोत्सव
मना रहे होंगे। या फिरगंगा ढाबा से कनॉट प्लेस तक नग्न प्रदर्शन जैसे खयालात भी इनके
उलाहित मानस में आ सकतें हैं।
एक और खास बात इनके
आयोजन के पोस्टरों में देखी गयी। एक स्लोगन लिखा था- “संघियों से कैसा डर, प्यार
करेंगे सड़कों पर।” पोस्टर पर जिस भी साथी का ये सृजन है उनको मै ये बताना चाहता
हूं कि साथी मनुष्यों ने बड़ी तरक्की कर ली है। भारत जैसे देश में तो प्यार बड़ी
शिद्दत की चीज़ है, यहां प्यार के रंगों को अनुभव कर पाना शायद किसी तपस्वी के
अलावा और के बूते की बात नहीं है। प्यार करने केलिए मनुष्यों के पास घर हुआ करते
हैं साथी, सड़कों पर तो कुत्तों को प्यार करते देखा जाता है यहां। माफ़ कीजिएगा,
कुत्ते सड़कों पर प्यार करते ज़रूर हैं किन्तु उन्हे ऐसे टेण्टबाज़ी टाईप आयोजन
नहीं करते देखा जाता, वो आलग बात है कि कार्तिक-मास में प्राकृतिक-व्यवस्था के कारण उन्हें ऐसे आयोजन के समान्तर देखा जा
सकता है। तब आप ही बताइए साथी, कुत्तों के और आप के प्यार के तरीके में कोई ख़ासा
अन्तर नहीं जान पड़ता है।
ऐसे में तो यही कहना
होगा कि जिन्हें वास्तव में प्यार का ‘प’ भी नहीं पता है वो चले ‘प्यार के चुम्बन’
का समारोह मनाने। भाई ये क्या प्यार के किसी ‘पञ्चनामें’ से कम है।
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