∙ अमित राजपूत
जब
चला मैं अकेला सफ़र पर
फ़रेबी, झूठी, लम्पट
प्रेम से अबोध दुनिया से झुंझलाकर
सफ़र सफ़र लगने लगा।
पर क़सम से
तुम्हारा मेरी गाड़ी में साथ चलना...
कह दो न
मोहब्बत है मुझसे।
तुम्हे वो दिन याद है
भीत को चीर आयी थी तुम मेरे डेरे में
खिड़कियां, दोनो परदे, रोशनदान
दरवाज़े की कुंडी सब बंद किए थे मैने दौड़कर
कमरे के अंदर ही पढ़ लिए थे मैने
तुम्हारे मन के वो चंचल पन्ने
कह दो न
मोहब्बत है मुझसे।
महसूस करने लगा हूं मैं तुम्हें
दरख़्तों की छांव में बैठा,
दरख़्तों की छांव में बैठा,
मेरी बंसी की धुन पर
गुलमोहर सा असीम सौन्दर्य लिए
शरमाकर नव वधू की तरह
तुम्हारा मेरे शागिर्द हो जाना
कह दो न
मोहब्बत है मुझसे।
क्या वो भी भूल रही हो तुम
मेरे साथ सागर मे नहाना
हमेशा मेरे बाद तुम्हारा रेत के रास्ते आना
देर तक वहीं रेत पर ही तुम्हारा नाचना
मज़बूर करती थी तुम...
बदन पर पड़े धागों के झरने को उतार फेकना
सागर की बूंदों को नमकीन बनाना
कह दो न
मोहब्बत है मुझसे।
पता चला कि रूठी हो तुम
मेरी स्निग्ध प्रेयसी से
हां, मुझे इश्क हो चला है
मोहब्बत करता हूं मै एक हमउम्र लड़की से
अब बेहया ही कह लो
ख़ुद को या मुझे
पर ऐ मदमस्त हवा
इक बार कह दो न
मोहब्बत है मुझसे।
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