आदमी और पानी में बड़ी समानता है, उनके
गुणधर्म आपस में लगभग समान है। एक बार मेरे घर के आंगन में पानी जमा हो गया था,
उसे मैने नज़रअंदाज़ कर दिया था। तीन दिनों बाद चित्रकूट से बाबूजी घर लौटे और
पानी को ठहरा हुआ देख आगबबूला हो गए थे मुझ पर। सच कहन तो उत्ते भर के कारन
जुतियाये गए रहन। लेकिन बाबूजी की डांट भरी बातें मुझे आज तक याद हैं, उन्होने
मुझे बताया था कि बेटा कभी पानी को ठहरने मत देना, व्यवस्था केलिए बड़ा हानिकारक
होता है। पानी की जगह कोई व्यक्ति हो तो उससे भी बचकर रहना क्योंकि पानी और आदमी में
कोई अंतर नहीं। दोनो में जो भी रंग भरो वही चढ़ेगा। आदमी पानीदारी दिखाता है। पर कभी-कभी
वह पानी-पानी भी हो जाता है। पानी तो परदेशी होता है, आज यहां ठहरा है कल वहां,
थोड़ा ढाल मिली उसको तो बह लेगा किसी और ठिकाने पर।
मैने ऐसे तमाम ढलाऊ
पानीदारों को देखा है, और आज मै नई दिल्ली स्थित भारतीय जनसंचार संस्थान में हूं
जहां लोग हमारी समस्याओं को ख़त्म करने को आतुर हैं। यहां महीनों से हम सभी का
सामूहिक संवाद कराकर हमें प्रखर पत्रकार बनाने की अनौपचारिक शिक्षा भी प्रदान की
जा रही है, हलांकि ये हमारे करीकुलम में नहीं है फिर भी ये यहां की पानीदारी ही है
इसलिए हम भी एडवांस हो लिए।
एक गीत सुनाऊं- “परदेशियों से न अंखियां मिलाना, परदेशियों को है एक दिन
जाना..।” किसी संस्था का संरक्षक, केयरटेकर या फिर दिग्दर्शक जब तक परदेशी की तरह
व्यवहार करता है तभी तक वह राग-द्वेष की भावना से परे उस संस्था का सुगमता से
निस्पक्ष संचालन कर सकता है, किन्तु अगर परदेशी से अंखियां मिलीं अर्थात् उस पानी
रूपी व्यक्ति का ठहराव हुआ तो परदेशी से प्रेम संभव है और प्यार में तो
आदान-प्रदान लगा ही रहता है, तथा फिर उसमें छेड़छाड़ और भोग की संभावना भी बनी रहती है।
इसलिए अगर परदेशी ने प्रेमिका से कुछ लूट ही लिया तो किसी को कोई आपत्ति नही होनी
चाहिए बल्कि इसे व्यवस्था मानकर चलने देना चाहिए।
इलाहाबाद
विश्वविद्यालय के कुछ छात्रावासों के वॉर्डन महोदय तो लगभग पन्द्रह वर्षों से अपने
पद पर बने हुए हैं जबकि उनके बाद तीसरा-चौथा वॉर्डन उस छात्रावास का कार्यभार
देखता। ऐसे परदेशियों के बारे में यह नहीं कहा जायेगा कि इन्होनें किसी व्यवस्था
को भोगा बल्कि ये कहा जायेगा कि वाह! डकार गयो परदेशी। ऐसा हाल सिर्फ़ यहीं का
नही बल्कि यहां से राजधानी की ओर और उसके उल्टा दोनो तरफ जितना बढ़ोगे यह उतना ही
बढ़ता जायेगा। जब हमें छात्रावासों का मॉडल देना होता है तो हम जेएनयू और दिल्ली
विश्वविद्यालय के कुछ छात्रावासों और उनकी मेसों का दर्शन कराते हैं, लेकिन आवश्यक
नहीं कि ऐसा ही हाल इलाहाबाद विश्वविद्यालय, पटना विश्वविद्यालय, गुरू घासीदास
विश्वविद्यालय या फिर सागर यूनिवर्सिटी का हो। उनकी मेसों की व्यवस्था किनके भरोसे
चलती है और उनके भोजन की गुणवत्ता कैसी है? उन्हें सुबह का नाश्ता मिलता भी है कि
नहीं? या फिर कोई परदेशी वहां भी सबकुछ डकार ले रहा है। ऐसा अमूमन पानी के ठहराव
के कारण होता है। सोचो कभी सर्वोच्च न्यायालय का प्रधान न्यायधीश अपनी
सेवानिवृत्ति के बाद दो वर्षों तक कभी यूं ही उसी पद पर बना रहा है? नहीं, क्योंकि
उन्हे ज्ञात है कि मामला अभी तो सही है लेकिन पानी ठहरने के बाद संक्रमण फैलाता
है।
मुझे उक्त परदेशी तो
फिर भी ठीक लगते हैं क्योंकि मैने आईआईएमसी में आकर पाया कि यहां तो पिछले पूरे
पच्चीस सालों से लड़कों को छात्रावास आवंटित नहीं किया गया है जबकि सूचना एवं
प्रसारण मंत्रालय द्वारा पोषित इस संस्था की संहिता में साफ-साफ लिखा है कि
छात्रावास खण्ड-दो का आवंटन छात्रों केलिए है। ज़ाहिर है यहां पानी बहुत दिनों से
ठहरा हुआ लगता है। यहां के पूर्व छात्र अभिषेक रंजन सिंह पिछले तीन सालों से "छात्रावास
हमारा अधिकार है" के नाम से इसके लिए संघर्ष कर रहे हैं और उन्होनें तब से
अपने फेसबुक अकाउण्ट का कवर पेज़ जो उनके संघर्ष के नाम से है बदला तक नहीं है। एक
और पुरा छात्र निधीश त्यागी जो अब बीबीसी हिन्दी के संपादक हैं, अपने परिचय में
लिखते हैं कि 'दिल्ली में आईआईएमसी के हिन्दी पत्रकारिता में दाखिला मिल गया लेकिन
हॉस्टल नहीं मिला।' ज़ाहिर है छात्रों की व्यथाएं पीड़ाजनक और गहरी हैं जो आज भी
कष्टपूर्वक जारी हैं। ये सब पानी के ठहराव की वजह से हुआ है। आईआईएमसी के इस सत्र
के गोल्डन बैच और अभिषेक रंजन के संघर्षों को बधाई कि कुछ छात्रों को छात्रावास
आवंटित कर दिये गए हैं, जाहिर है ये किसी हलचल की बदौलत हो पाया। इसलिए आज ज़रूरत
है ठहरे हुए पानी में कंकड़ मारने की ताकि इस पानी में हलचल मच जाये।
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