Saturday, 15 November 2014

लोकशक्ति के हथियार


अमित राजपूत
                      
प्रायः यह देखा गया है कि सत्ता प्राप्त करने के पश्चात् जनप्रतिनिधि अपने को राज्य-शक्ति का प्रतीक मानकर उसके माध्यम से लोकशक्ति का दमन करने कि चेष्टा करने लगते हैं और इस प्रकार लोकतंत्र की विकृति का कारण बन जाते हैं या वास्तविक लोकतंत्र को नष्ट कर उसे प्रभावहीन बना देते हैं। तब राज्य-शक्ति पर लोकशक्ति का नियंत्रण आवश्यक हो जाता है, क्योंकि यह लोकतान्त्रिक देश के लिए एक भयानक ख़तरा है। इस तरह के ख़तरे को उत्पन्न होने देने से रोकने के लिए लोकशक्ति की अभिव्यक्ति के रूप में राज्य-शक्ति पर नियंत्रण स्थापित करने हेतु जन-अधिकार के रूप में अहिंसक लोक-आंदोलनों का प्रारम्भ स्वाभाविक तथा आवश्यक हैं। सभाएं, जुलूस, प्रदर्शन, धरने, हड़ताल एवं सविनय अवज्ञा आदि सब उनके अस्त्र-शस्त्र की भांति हैं, यद्यपि ये अहिंसक अस्त्र-शस्त्र संविधानेत्तर हैं लेकिन इसके बावजूद जब राज्य-शक्ति लोकशक्ति के अनुसार कार्य करे वरन् वह आततायी चरित्र की बन जाये तो जनता को इन अहिंसक अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग का अधिकार है और यह वांछनीय भी है, ताकि राज्य-शक्ति को लोकशक्ति के अनुरूप कार्य करने के लिए बाध्य किया जा सके। लेकिन ये लोक-आंदोलन के साधन अनिवार्यतः शांतिपूर्ण और अहिंसक होने, आम हितों से प्रेरित और उनके अनुकूल होने तथा राजनीतिक स्वार्थों से पूर्णतः मुक्त होने चाहिए। तभी इनको उपयुक्त मानकर इनका
प्रयोग न्यायोचित माना जा सकता है।

                  उदाहरणतः बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक के उत्तरार्ध में देश की हालत बिगड़ती जा रही थी। राजनीतिक भ्रष्टाचार, प्रशासकीय अकुशलता और आर्थिक विफलता आदि से आक्रांत जन-जीवन अशांति के दौर से गुजर रहा था। देश को ऐसे विकट स्थिति में सुधार की अत्यंत आवश्यकता थी लेकिन उसे कोई सही दिशा देने वाला नहीं था, देश का नेतृत्व तानाशाही रवैया अपनाकर जन-मानस में असंतोष के बीज़ बो चूका था। अतः देश की ऐसी गम्भीर स्थिति ने जयप्रकाश नारायण को राजनीति में भरपूर सक्रिय होने के लिए बाध्य कर दिया, जो अपनी सर्वोदयी और समग्र-क्रांति के निष्ठावान प्रणेता की भूमिका के पूर्व अपने राजनीतिक जीवन के प्रारंभिक काल में भारतीय समाज के प्रमुख व्याख्याता के रूप में प्रसिद्ध थे। उनकी पहले समाजवाद के प्रति तथा बाद में सर्वोदय एवं समग्र-क्रांति के प्रति निष्ठा का एकमात्र लक्ष्य एक ऐसी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था की खोज करना था जो व्यक्ति की सामाजिक ही नहीं वैयक्तिक स्वतंत्रता और समानता के सिद्धांत और व्यवहार पर आधारित हो तथा जिसमें रहकर हर व्यक्ति इनका उपभोग करते हुए अपने सामाजिक और वैयक्तिक जीवन का आदर्श-विकास करने हेतु समान अवसर प्राप्त कर सके। उनके त्यागमयी और सतत् संघर्षशील जीवन के कारण भारतीय जनता ने उन्हें 'लोकनायक' की उपाधि से विभूषित किया। फलस्वरूप सन् १९७४-७५ में इस लोकनायक ने गुजरात और बिहार में देश के शुद्धिकरण हेतु छात्रों द्वारा चलाये जाने वाले आंदोलन को नेतृत्व प्रदान किया तथा इस हेतु 'संपूर्ण क्रांति' की अवधारणा का प्रतिपादन ही नहीं किया वरन् उसे संपन्न करने हेतु जनता का आह्वान भी किया। शीघ्र ही जयप्रकाश के नेतृत्व में प्रारम्भ यह आंदोलन देश के अन्य भागों में फ़ैल गया और जन-संघर्ष समितियों के माध्यम से संचालित होने लगा। इसी बीच जून, १९७५ में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने चुनाव में भ्रष्ट आचरण के आरोप में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के निर्वाचन को अवैध घोषित कर दिया। इस पर जे.पी. ने दिल्ली में आयोजित विशाल आम सभा में उनसे नैतिक आधार पर त्याग-पत्र देने की मांग की तथा इस हेतु आंदोलन प्रारम्भ कर दिया। देश में इस आंदोलन के फलस्वरूप सर्वत्र अस्थिरता तथा अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गयी। इस पर भयाक्रांत होकर श्रीमती गांधी ने देश में २३ जून, १९७५ को संवैधानिक आपातकाल की घोषणा कर दी तथा जे.पी. सहित देश के सभी विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। जेल से रिहा होने के बाद जयप्रकाश ने इस अवसर का लाभ उठाते हुए सभी विपक्षी दलों में कांग्रेस विरोधी एकता कायम करने का प्रयास किया तथा जनता को यह विश्वास दिलाने की भरसक कोशिश की कि कांग्रेस के बिना भी देश की सत्ता चल सकती हैं। फलस्वरूप कांग्रेस के सशक्त विरोधी दल के रूप विपक्षी दलों के विलय से 'जनता पार्टी' अस्तित्व में आयी तथा जयप्रकाश के नेतृत्व में उसने निर्वाचन में शानदार सफलता प्राप्त की तथा १९७७ में देश की सत्ता की बागडोर सम्भाली, क्योकि यह समय क्षेत्रीय पार्टियों के अभाव का समय था। देश में केवल सिंगल रूलिंग पार्टी थी तथा कुछ राज्यों में वामपंथियों का अस्तित्व था। इस प्रकार जनता पार्टी कांग्रेस के विकल्प के रूप में देश के सामने आयी।
               
चूँकि ये देश के इतिहास में पहला मौका था जब आज़ादी के २८ साल बाद एक गठबंधन सरकार बनी। जे.पी. आंदोलन के प्रत्यक्ष परिणामों में क्षेत्रीय दलों का उदय तथा गठबंधन की सरकारों का चलन प्रमुख है। गठबंधन की सरकारों की प्रकृति ने आधुनिक भारत में लगभग यह तय कर दिया की अब ऐसा कोई आंदोलन नहीं होगा। लेकिन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की दूसरे चरण की सरकार के पुनः सत्ता में आने के बाद इसकी खुल्लमखुल्ला लूट, घोटालों-दर-घोटालों की मज़बूत श्रृंखला, कमज़ोर अर्थव्यवस्था तथा भ्रष्टाचार में निर्लिप्त भाव से समर्पित होने से उकता चुका राष्ट्र पुनः एक नेतृत्व की मांग करने लगा। भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए प्रत्याशित किसी संवैधानिक संस्था की मांग बढ़ गयी। फलस्वरूप 'स्केण्डिनेवियन' देशों द्वारा बनाई गई एक लोकप्रिय संस्था "ओम्बड्समैन" को भारत में स्थापित करने की मंशा को लेकर सादगी पुरुष अण्णा हज़ारे ने दिल्ली में अनशन प्रारम्भ कर दिया, अण्णा के इस अनशन ने धीरे-धीरे भारतवर्ष के हर चौराहे पर समर्थन प्राप्त किया और यह एक बड़ा आंदोलन बन गया। अण्णा-आंदोलन जे.पी.आंदोलन का अगला चरण कहा जा सकता हैं। यद्यपि अण्णा का अनशन मात्र कार्य-सिद्धि के लिए था और वह परिणत भी हुआ तथापि इससे व्यवस्था-परिवर्तन की चिंगारी भी उठी जो अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के रूप अख़्तियार हैं। दिल्ली का यह सत्ता परिवर्तन वास्तव में अनूठा हैं लेकिन इसे भी अब गठबंधन के जाल में फंसना ही पड़ रहा है।
             क्षेत्रीय पार्टियों के प्रभाव तथा गठबंधन की मजबूरी ने चुनावों को जाति आधारित बना दिया हैं और अब यह इतना जटिल हो गया हैं कि सांप्रदायिक आंदोलन धरातल पर कम प्रासंगिक दिखते हैं, हलांकि इन सांप्रदायिक आंदोलनों को उकसाकर पैदा करा देना अलग बात होगी, जैसाकि आज की क्षेत्रीय पार्टियां कर रही हैं। वास्तव में भारत में ग्रास-रूट पर वर्ग-संघर्ष बड़ा जटिल मुद्दा हैं। यह सभी सम्प्रदायों को पार करता हुआ 'सेक्स-सिम्बल' पर खड़ा हुआ हैं। सामरिक दृष्टिकोण से देखें तो ज्ञात होता है कि इन दिनों नारीवादी चिंतन अपने उफान पर हैं। पिछली कुछ घटनाओं ने उसका स्वरुप और भी वृहद् बनाया हैं, किशोरी-युवतियां "माई बॉडी माई राईट, माई सिटी माई चॉइस" की वकालत कर रही हैं। बचा-कुचा बल समलैंगिकता की बहसों से मिल गया। भला हो भारतीय न्याय-व्यवस्था का जिसने इसके कुछ पर ज़रुर झुलसा दिए हैं, किन्तु यह नारीवादी चिंतन आज जिस तरह से सभी दलों से ऊपर उठकर चित्कार कर रहा है, कभी भी इसका ज्वालामुखी फट सकता है और अगले आंदोलन के रूप में 'नारी-आंदोलन' परिणत हो सकता हैं।
 उपर्युक्त चिंतन के बाद हमें इसकी समस्यायों की जड़ों को तलाशना चाहिए तथा स्त्रियों को मुक्त तर्क-वितर्क का मंच प्रदान करना चाहिए ताकि कोई कुंठा उनमे द्रवित होने पाये। साथ ही साथ शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार कर विशुद्ध विवेक की खोज के लिए प्रयास किये जाने चाहिए। विचारक और देश के हमदर्दों को ज्ञात हो कि आंदोलन और राजनीति गाँधीवादी होनी चाहिए। गांधी जिन्ना के साथ भी समझौता करते थे और अम्बेडकर के साथ भी, क्योकि उन्हें देश की चिंता थी। इसीलिए वो कभी मुसलमानों या दलितों मात्र के नेता नहीं बन पाये। अन्यथा चिंता का विषय यह हैं कि अब तक लोकशक्ति के जिन हथियारों का प्रयोग आंदोलनकरियों के द्वारा प्रयोग में लाये गए हैं, नारीवादी आंदोलनों में कहीं जंग खाये से प्रतीत होते हैं। अतः आंदोलनों के दौरान यदि ये जंग खाये हुए हथियार टूट गए तो स्थिति अकर्मण्य, शौर्यविहीन तथा निंदनीय कहलायेगी।



                                               

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